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भगवती स्त्र-स.२५ 7 ७ गुका ध्यान
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विचार करना, 'अनित्यानप्रेक्षा' है।
अशरणानुप्रेक्षा-'जन्म, जरा, मृत्यु के भय से भयभीत और व्याधि एव वेदना से पीड़ित जीव का इस मंसार में कोई त्राण रूप नहीं है। यदि आत्मा का कोई त्राण करने वाला है, तो जिनेन्द्र भगवान का प्रवचन ही एक त्राण-शरण है।' इस प्रकार आत्मा के त्राण-शरण के अभाव का निन्तन करना 'अशरण भावना' है ।
४ संसारानुप्रेक्षा-'इस संसार में माता बन कर वही जीव, पुत्री, बहिन और स्त्री बन जाता है । पुत्र का जीव पिता, भाई और शत्रु तक बन जाता है । इस प्रकार चार गति में सभी अवस्थाओं में मंसार के विचित्रतापूर्ण स्वरूप का विचार करना 'संसारानप्रेक्षा' है।
धर्म ध्यान के उपरोक्त चार भेद के अतिरिक्त अन्य प्रकार भी हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) पिण्डस्थ-पाथिवी, आग्नेयी आदि पाँच धारणाओं का एकाग्रता से चिन्तन करना।
(२) पदस्थ--नाभि में मोलह पंखुड़ी के, हृदय में चौबीस पंखुड़ी के और मुग्व पर आठ पंखुड़ी के कमल को कल्पना करना और प्रत्येक पंखुड़ी पर वर्णमाला के अ, आ, इ, ई आदि अक्षरों की अथवा पंचपरमेष्ठी मन्त्र के अक्षरों की स्थापना कर के एकाग्रतापूर्वक उनका चिन्तन करना अर्थात किमी पद के आश्रित हो कर मन को एकाग्र करना 'पदस्थ धर्म ध्यान' है।
(३) रूपस्थ--शास्त्रोक्त अरिहन्त भगवान् की शान्त दशा को हृदय में स्थापित कर के स्थिर चित्त से ध्यान करना 'रूपस्थ धर्म ध्यान' है।
(४) रूपातीत-रूप रहित निरंजन, निराकार, निर्मम, सिद्ध भगवान् का अवलम्बन ले कर, उसके साथ आत्मा की एकता का चिन्तन करना 'रूपातीत धर्म ध्यान' है।
शुक्ल ध्यान १४८-सुक्के झाणे चउब्बिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा१ पुहुत्तवियस्के सवियारी २ एगंतवियक्के अवियारी ३ सुहुमकिरिए
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