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भगवती सूत्र-श. २६ उ. २ अनन्तरोपपन्नक के बन्ध
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इस दूसरे उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक नैरयिक आदि चौबीस ही दण्डकों में उपर्युक्त ग्यारह द्वारों से पाप-कर्म आदि की बन्ध वक्तव्यता कही जाती है । पहले उद्देशक में जीव नारकादि पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस उद्देशक में नैरयिकादिं चौबीस दण्डक ही कहने चाहिये. क्योंकि औधिक के साथ अनन्नरोपपत्रक आदि विशेषण नहीं लगाये जा सकते । अनन्तरोपपन्नक नैरयिक में पहले के दो भंग पाये जाते है। क्योंकि उस में मोह रूप पाप-काम के अवन्धकपन का अभाव है । अबन्धकपन मूक्ष्म-संपरायादि गुणस्थानों में होता है और वे गुणस्थान मैरयिक के नहीं होते । लेश्यादि पद सामान्यतः नैरयिकादि में होते हैं । जो पद अनन्तरोपपन्नक नैरयिक आदि में अपर्याप्त होने के कारण नहीं होते, उनके विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिये । वे ये हैं-मिश्रदृष्टि, मनोयोग और वचनयोग । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । पर्याप्तक होने के बाद तो ये होते हैं ।
३ प्रश्र-अणंतरोववण्णए णं भंते ! णेरइए आउयं काम किं बन्धी-पुच्छा।
३ उत्तर-गोयमा ! बन्धी ण बन्धइ बंधिस्सइ । - भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नरयिक ने आयु-कर्म बांधा था ?
- ३ उत्तर-हे गौतम ! पहले बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्य में बांधेगा। यह एक तीसरा भंग ही पाया जाता है।
.४ प्रश्न-सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववण्णए णेरइए आउयं कम्मं किं बन्धी ?
४ उत्तर-एवं चेव तइओ भंगो, एवं जाव अणागारोवउत्ते । सव्वत्थ वि तइओ भंगो । एवं मणुस्सवजं जाव वेमाणियाणं । मणुस्साणं सब्वत्थ तइय-चउत्था भंगा, णवरं कण्हपक्खिएसु तइओ
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