________________
३५६२
भगवती सून-श. २६ उ. १ नैरयिक के पाप-बन्ध
जिसके जो लेश्यादि हों, वे कहने चाहिये । इन सभी में पहला और दूसरा भग पाया जाता है । मनुष्य सामान्य जीव के समान है।
विवेचन--वेदनीय कर्म के बन्धक में पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा में है। जो भव्य जीव मोक्ष जाने वाला है. उनकी अपेक्षा दुसरा भंग है । तीसरा भंग यहां संभव नहीं है, क्योंकि जो जीव वेदनीय का अबन्धन हो जाता है, वह फिर वेदनीय का बन्ध कभी नहीं करता । चौथा भंग अयोगी केवली की अपेक्षा से है । इस प्रकार वेदनीय कर्म में तीसरा भंग छोड़ कर शेष तीन गंग पाये जाते हैं।
सलेशी जीव में पूर्वोक्त युक्ति से तासरे भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग होते है । 'बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा,' यह चौथा भंग यहाँ स्वीकार किया है, किन्तु यह यहाँ किस प्रकार घटित होता है, यह सम्यक् ज्ञात नही हाता । यह भंग लेश्या रहित अयोगी में ही घटित होता है, क्योकि लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है और वहाँ तक जीव वेदनीय कर्म का बन्धक होता है। इस विषय में कोई आचार्य इस प्रकार ममाधान
करते हैं कि इस सूत्र के प्रामाण्य (वनन) से अयोगी अवस्था के प्रथम समय में 'घंटा - लाला न्याय' से परमशुक्ल लेण्या मम्भावित होता है और इसीलिये सलेशी में चौथा भग घटित हो सकता है । तत्त्व बहुश्रुत गम्य है ।
कृष्णादि पाँच लेश्या वाले जीवों में अयोगापन का अभाव होने से वे वेदनीय कर्म के अबन्धक नहीं होते। इसलिये उन में पहले के दो भंग होते हैं । शुक्ललेशी जीव में सलेशी के समान तीन भंग होते हैं। अलेशी जीव, केवली और सिद्ध होते हैं उनमें केवल चौथा भंग ही पाया जाता है । कृष्णपाक्षिक जीव में अयोगीपन का अभाव होने से पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । शुक्लपाक्षिक जीव अयोगी भी होता है, इसलिये उसमें नीमरे 'भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग होते हैं।
सम्यगदष्टि जीव में अयोगीपन का सम्भव होने से तीसरे भंग के अतिरिक्त शष तीन भंग पाये जाते हैं । मिथ्या दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवों में अयोगीपन का अभाव होने से वे वेदनीय कर्म के अबन्धक नहीं होते। इसलिये पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । ज्ञानी और केवलज्ञानी में, अयोगी अवस्था में चौथा भंग होता है । इसलिये तीसरे भंग के अतिरिक्त शेष तीन भग पाये जाते हैं । आभिनिबोधिक आदि ज्ञान वाले जीवों में अयोगी अवस्था ना अभाव होने से नौथा भग नहीं पाया जाता । उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । इस प्रकार सभी स्थानों पर यह समझना चाहिये कि जहाँ अयोगी अवस्था का
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org