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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ विनय तप
होंगे और उससे वे मुझे ज्ञान सिखावेंगे'-ऐसा समझ कर उनकी विनय-भवित करना) आर्तगवेषणता (रोगी साधुओं की सार-संभाल करना) देशकालानुज्ञता (अवसर देख कर कार्य करना) सर्वार्थअप्रतिलोमता (सभी कार्यों में गुरु महाराज के अनुकूल प्रवृत्ति करना)।
विवेचन-जिसके द्वारा सम्पूर्ण दुःखों के कारणभूत आठ कर्मों का विनयनविनाश होता है, उसे 'विनय' कहते हैं अथवा अपने से बड़े और गुरुजनों को देश-काल के अनुसार सत्कार-सन्मान करना 'विनय' कहलाता है । अथवा
कर्मणां दाग विनयनाद, विनयो विदुषां मतः ।
अपवर्गफलाट्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् ।। . ' अर्थात् ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने से यह 'विनय' कहा जाता है । मोक्ष रूपी फल को देने वाले धर्मरूपी वृक्ष का यह मूल है । इसके सामान्यतः सात भेद हैं । यथा-ज्ञान-विनय, दर्शन-विनय, चारित्र-विनय, मन-विनय, वचन-विनय, कायक्मिय और लोकोपचार-विनय । इन सातों के अवान्तर भेद १३४ होते हैं । वे इस प्रकार हैंज्ञान-विनय के ५ भेद, दर्शन-विनय के ५५ भेद, चारित्र-विनय के ५ भेद, भन-विनय के २४ भेद, वचन-विनय के २४ भेद, काय-विनय के १४ भेद, लोकोपचार-विनय के ७ भेद । ये कुल मिला कर १३४ भेद होते हैं।
ज्ञान और ज्ञानी पर श्रद्धा रखना, उनके प्रति भक्ति और बहमान दिग्वाना, उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर भली प्रकार से चिन्तन-मनन करना और विधिपूर्वक ज्ञान ग्रहण करना एवं ज्ञान का अभ्यास करना 'ज्ञान-विनय' है । इसके पांच भेद हैं । यथा-मतिज्ञान विनय, श्रतज्ञान विनय, अवधिज्ञान विनय, मनः पर्यव ज्ञान विनय और केवलज्ञान विनय ।
दर्शन-विनय-देव अरिहन्त (वीतराग), गुरु निर्ग्रन्थ (कनक कामिनी के त्यागी) और धर्म केवलि भाषित, इन तीन तत्वों में श्रद्धा रखना दर्शन (सम्यक्त्व) कहलाता है। दर्शन की विनय-भक्ति और श्रद्धा को 'दर्शन-विनय' कहते हैं । इसके सामान्यतः दो भेद है। यथा--शभूषा-विनय और अनाशातना-विनय । शुश्रूषा-विनय के दस भेद हैं१ अभ्यत्थान-गुरु महाराज या अपने से बड़े रत्नाधिक सन्त पधारते हों, तो उन्हें देख कर बडे हो जाना २ आसनाभिग्रह-'पधारिये आसन पर बैठिये'-इस प्रकार कहना ३ भासनप्रदान-बैठने के लिये उन्हें आसन देना ४ सत्कार-उन्हें सत्कार देना ५ सन्मान-उन्हें सन्मान देना ६ कीतिकर्म-उनके गुणग्राम स्तुति करना ७ अञ्जलि
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