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भगनती सूत्र-श. २५ उ. ७ प्राणिणत तण
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४ रसनेन्द्रिय प्रनिगंटीनता । ५ स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिमलीनता । इनका स्वरूप भी ऊपर लिग्वे अनसार जानना चाहिये ।
क्रोध प्रतिसंलीनता-क्रोध का उदय नहीं होने देना और उदय में आये हुए क्रोध को निष्फल बना देना । मान प्रतिसंलोनता, माया प्रतिसलीनता और लोभ प्रतिगंलीनता, इन तीनों का स्वरूप, कोध प्रतिसंलीनता के समान है।
मन प्रतिसंलीनता-मन की अकुशल (अशुभ) प्रवृत्ति को रोकना और कुशल (शुभ) प्रवृत्ति करना तथा 'चित्त को एकाग्र (स्थिर ) करना ।
वचन प्रतिसंलीनता-अकुशल (अशभ) वचन को रोकना और कुशल (शुभ एवं निरवद्य) वचन बोलना तथा वचन की प्रवृत्ति को रोकना । ये सभी वचन प्रतिमलीनता हैं।
काय प्रतिसंलीनता-भली प्रकार समाधिपूर्वक शान्त हो कर, हाथ-पाँव संकुचित कर के तथा कछुए के रामान गुप्तेन्द्रिय हो कर, आलीन-प्रलीन अर्थात् स्थिर होना 'काय प्रतिसंलीनता' है। .
विविक्तशयनारानगेवनता-स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित स्थान में निर्दोग शय्या-संस्तारक आदि स्वीकार कर रहना-विववतशयनासनसेवनता कहलाती है । आराम (बगीचा) उद्यान (बाग) आदि में मंस्तारक अंगीकार करना भी विविक्तशयनासनसेवनता है।
अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस परित्याग, काय-क्लेश और प्रतिमंलीनता, ये छह 'बाह्य तप' कहलाते हैं। ये मुक्ति प्राप्ति के बाह्य अंग हैं। ये बाह्य द्रव्यादि की अपेक्षा रखते हैं और प्रायः बाह्य शरीर को तपाते हैं अर्थात् शरीर पर इनका अधिक प्रभाव पड़ता है। इन तपों का करने वाला भी लोक में 'तपस्वी' रूप से प्रसिद्ध हो जाता है । अन्यतीथिक भी स्वाभिप्रायानुसार इनका सेवन करते हैं । इत्यादि कारणों से ये तप 'बाह्य तप' कहलाते हैं।
प्रायश्चित्त तप १२४ प्रश्न-से किं तं अभितरए तवे ?
१२४ उत्तर-अम्भितरए तवे छविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ पायच्छित्तं २ विणओ ३ वेयावच्चं ४ सज्झाओ ५ झाणं ६ विउसग्गो।
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