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भगवती सूत्र श. २५ उ ७ प्रायश्चित्त के भेद
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२ प्रतिक्रमणा - प्रतिक्रमण के योग्य । पाप से पीछे हटने एवं किये हुए पाप की निष्फलता के लिये 'मिच्छामिदुक्कडं कहना एवं भविष्य में वंसा पाप नहीं करने का संकल्प करना । जो प्रायश्चित केवल प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाय और गुरु के समक्ष आलोना करने की भी आवश्यकता न पड़े, उसे 'प्रतिक्रमणार्ह' कहते हैं ।
३ तदुभयार्ह आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य। जो प्रायश्चित दोनों से शुद्ध हो, उसे 'तदुभया' या 'मिश्र' प्रायश्वित्त कहते हैं ।
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४ विवेकाई - अशुद्ध भक्तादि को छोड़ना। जो प्रायश्चित्त आधाकर्मादि आहार विवेक अर्थात् त्याग करने मे शुद्ध हो जाय, उसे 'विवेकाह' प्रायश्चित्त कहते हैं ।
५ व्युत्सर्गार्ह - कायोत्सर्ग के योग्य । शरीर की चेष्टा को रोक कर ध्येय वस्तु में उपयोग लगाने से जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि होती है, उसे 'व्युत्सर्गार्ह' प्रायश्चित्त कहते है । ६ तपाईं - जिस दोष की शुद्धि तप से हो, उसे 'तपाई' प्रायश्चित्त कहते हैं ।
७ छेदाहं - दीक्षा- पर्याय छेद के योग्य । जो अपराध दीक्षा-पर्याय का छेद करने पर शुद्ध हो, उसे 'छेदाहं' कहते हैं ।
८ मूलाई - मूल अर्थात् पुनः दीक्षा लेने से शुद्ध होने योग्य । ऐसा दोष जिसके सेवन करने पर साधु को एक बार लिया हुआ संयम छोड़ कर दूसरी बार दीक्षा लेनी पड़े। छेदाहं प्रायश्चित्त में चार महीने, छह महीने या कुछ समय की दीक्षा कम कर दी जाती
है । ऐसा होने पर वह दोषी साधु, उन सभी साधुओं को वन्दना करता है. जिनसे पहले
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दीक्षित होने पर भी, दीक्षा-पर्याय कम कर देने से वह छोटा हो गया है। जितनी दीक्षा पर्याय का छेद हुआ है, उससे शेष दीक्षा पर्याय उसकी गिनती में आती है किन्तु मूलाई प्रायश्चित्त में उसका पहले का संयम बिलकुल नहीं गिना जाता। दोपा को पुनः दीक्षा लेनी पड़ती है और उस समय से पहले दीक्षित सभी साधुओ को वन्दना करनी पड़ती है । ९ अनवस्थाप्य - तप के बाद दूसरी बार दीक्षा देने के योग्य। जब तक अमुक प्रकार का तप न करे, तब तक उसे संयम या दीक्षा नहीं दी जा सकती । इस प्रकार की अनवस्था ( अनिश्चित काल मर्यादा) होने से यह 'अनवस्थाप्य' प्रायश्चित्त कहलाता है । निश्चित तप करने के बाद उसे गृहस्थ का वेश पहनाने के बाद दूसरी बार दीक्षा देने पर ही उसकी शुद्धि होती है, इसे 'अनवस्थाप्यार्ह' प्रायश्चित्त कहते हैं ।
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१० पारांचिकाई- -गच्छ से बाहर करने योग्य । जिस दोष के सेवन करने पर साधु को गच्छ से बाहर निकाल दिया जाय। साध्वी या रानी आदि का शील भंग रूप
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