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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ आलोचना के दोष
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खेद पूर्वक वचन बोलना।
७ सहसाकार प्रतिगेवना-अकस्मात् अर्थात् पहले से बिना समझे-बूझे और बिना प्रतिलेखना किये किसी काम को करना । अर्थात् पहले बिना देखे पैर आदि रग्वना और पीछे देखना।
८ भय प्रतिगेवना-सिंह आदि के भय मे संयम की विराधना करना।
९ प्रद्वेष प्रतिसेवना-किसी के ऊपर द्वेष या ईर्पा से संयम की विराधना करना । यहां प्रद्वेष से चारों कषाय लिये जाते है ।
१० विमर्श प्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा आदि के लिये की गई मंयम की विराधना।
इन दस कारणों मे मंयम की विराधना की जाती है या हो जाती है।
· आलोचना के दोष ९८ दस आलोयणादोसा, पण्णत्ता, तं जहाआकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दिटुं बायरं च सुहुमं वा । छणं सदाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ।
. भावार्थ-९८-आलोचना के दस दोष कहे हैं । यथा-१ आकम्प्य २ अनुमान्य ३ दृष्ट ४ बादर ५ सूक्ष्म ६ छन्न-प्रछन्न ७ शब्दाकुल ८ बहुजन ९ अव्यक्त और १० तत्सेवो । ..
विवेचन-जानते या अजानते लगे हुए दोष को आचार्य या बड़े साधु के सामने निवेदन कर के उसके लिये उचित प्रायश्चित्त लेना-'आलोचना' है । आलोचना का शब्दार्थ है-अपने दोषों को भली प्रकार देखना । आलोचना के दस दोष हैं। इन्हें छोड़ते हुए शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिये । वे दोष इस प्रकार हैं
. १ आकंपयित्ता (आकम्प्य)-'प्रसन्न होने पर गुरु महाराज मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे'-ऐसा सोच कर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न कर के फिर उनके समक्ष दोषों की आलोचना करना।
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