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भगवनी सूत्र--ण. २५ उ. ७ चारित्र-पर्यव
भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत के चारित्र-पर्यव कितने कहे हैं ?
३७ उत्तर-हे गौतम ! चारित्र-पर्यव अनन्त कहे हैं। इसी प्रकार यावत् यथाख्यात संयत तक ।
३८ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स सट्टाण. सण्णिगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? . ..
३८ उत्तर-गोयमा ! सिय हीणे-छट्ठाणवडिए ।
__ भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! एक सामायिक संयत, दूसरे सामायिक संयत के स्वस्थान सन्निकर्ष (सजातीय चारित्र-पर्यवों) की अपेक्षा हीन होते हैं, तुल्य होते हैं या अधिक होते हैं ?
३८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् हीन, कदाचित तुल्य और कदाचित अधिक होते हैं । यह छह स्थान पतित जानो।
३९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! छेओवट्ठावणियसंजयस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपजवेहिं-पुन्छा।
३९ उत्तर-गोयमा ! सिय हीणे, छट्टाणवडिए । एवं परिहारविसुद्धियस्स वि।
भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत के परस्थान सन्निकर्ष (विजातीय चारित्र-पर्यवों) को अपेक्षा होन, तुल्य या अधिक होते हैं ?
३९ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होते हैं। यह भी छह स्थान पतित होते हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिक संयत भी।
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