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भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ अन्तर काल द्वार
परिहारविशुद्धिक गंयतों का काल जघन्य देशोन (५८ वर्ष कम ) दो सौ वर्ष होता है । जैसे कि उत्सर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के समीप सौ वर्ष की आयु वाले कोई मुनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करे और उनके जीवन के अन्त में उसके पास मो वर्ष की आयु वाले दूसरे कोई मुनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करे । किंतु उनके पास फिर कोई तासरे मुनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार नहीं करते। इस प्रकार दो सौ वर्ष होते हैं । परन्तु परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करने वाला उनतीस वर्ष की आयु हो जाने पर ही यह चारित्र अंगीकार कर सकता है । इस प्रकार दो व्यक्तियों के अठावन वर्ष कम हो जाने पर अठावन वर्ष कम दो सौ वर्ष अर्थात् एक सौ बयालीस वर्ष जघन्य काल होता है। इस प्रकार टीकाकार ने व्याख्या की है और चूर्णिकार ने भी इसी प्रकार व्याख्या की है, किन्तु वह अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थकर की अपेक्षा से की है । दोनों व्याख्याओं की संगति एक ही प्रकार से बताई है किन्तु परिहारविशुद्धिक चारित्र वाला चौथे आरे का जन्मा हुआ होने से दूसरे पाठ (प्रथम परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करने वालों के पास में उनके जीवन के अन्त में परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करने वाला) की आयु एक सौ आठ वर्ष या इससे अधिक हो जाती है। उत्कृष्ट काल देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष होता है। जैसे कि-अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के समीप पूर्वकोटि वर्ष की आय वाले मनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करे और उनके जीवन के अन्त में उनके पास उतनी ही आयु वाले दूसरे मुनि यही चारित्र अंगीकार करे । इस प्रकार दो पूर्वकोटि वर्ष होते हैं। उनमें से उन दोनों मुनियों की उनतीस-उनतीस वर्ष की आयु कम करने पर देशोन (५८ वर्ष कम) दो पूर्वकोटि वर्ष होते हैं ।
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अन्तर काल द्वार
८३ प्रश्न-सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? -- ८३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं जहा पुलागस्स । एवं जाव अहक्खायसंजयस्स ।
भावार्थ-८३ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत का अन्तर कितने काल का होता है ?
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