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भगवती मूत्र--श. २५ 3 3 चारित्र-पर्यत्र
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४० प्रश्न-सामाइयमंजप णं भंते ! मुहुमसंपरायसंजयस्स परट्टाणसण्णिगामेणं चरित्तपन्जवेहि-पुच्छा। __४० उत्तर-गोयमा ! हीणे. णो तुल्ले, णो अभहिए, अणंतगुणहीणे। एवं अहक्खायसंजयस्म वि । एवं छेओवट्ठावणिए वि हेटिल्लेसु तिसु वि समं छटाणवडिए, उवरिल्लेसु दोसु तहेव हीणे । जहा छे ओवट्ठावणिए तहा परिहारविसुद्धिए वि।
भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, सूक्ष्म-संपराय संयत के परस्थान सन्निकर्ष (विजातीय) चारित्र-पर्यवों की अपेक्षा हीन, तुल्य या अधिक होते हैं ? .
४० उत्तर-हे गौतम ! हीन होते हैं, तुल्य और अधिक नहीं होते। अनन्त गुण हीन हैं। इसी प्रकार यथाख्यात संयत भी। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी नीचे के तीन संयतों के साथ छह स्थान पतित होते हैं
और ऊपर के दो संयतों के साथ उसी प्रकार अनन्त गण हीन होते हैं। परिहारविशुद्धिक संयत का कथन छेदोपस्थापनीय संयत के समान है। .
४१ प्रश्न-सुहुमसंपरायसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स परट्ठाण-पुच्छा। ___ ४१ उत्तर-गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अभहिए, अणंत. गुणमहिए। एवं छे ओवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिएसु वि समं । सट्टाणे सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिंघ अब्भहिए । जइ हीणे अणंतगुणहीणे, अह (जइ) अब्भहिए अणंतगुणमब्भहिए ।
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