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भगवती सूत्र - श. २५ उ ७ संयतों का स्वरूप
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त्रिविध पालन करता हुआ अमुक प्रकार का तप करता है, वह परिहारविशुद्धिक संयत' कहलाता
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जो सूक्ष्म लोभ को वेदता हुआ चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम करता है या क्षय करता है, वह 'सूक्ष्म-संवराय संयत' कहलाता है । यह यथाख्यात संयत से कुछ हीन होता है ॥४॥
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मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर जो छद्मस्थ या जिन ( केवली ) होता है, वह 'यथाख्यात संयत' कहलाता है ॥५॥
विवेचन - सामायिकादि पाँच चारित्र हैं । अतः जो सामायिक आदि चारित्र के पालक हैं, वे सामायिक आदि 'संयत' कहलाते हैं । इनके दो भेद हैं-इत्वरिक और यावत्कथिक । इत्वर का अर्थ है- अल्पकाल | चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् भविष्य में दूसरी बार छेदोपस्थापनीय संयतपन का व्यपदेश (व्यवहार) हो, उसे 'इत्वरिक सामायिक संयत' कहते हैं | प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के तीर्थ में, जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता, तब तक उस शिष्य के इत्वरकालिक सामायिक समझनी चाहिये । यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक' कहलाती है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के मध्य के बाईस तीर्थंकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों के तीर्थं में सामायिक चारित्र लेने के पश्चात् पुनः दूसरा व्यपदेश नहीं होता । इसलिये उन्हें 'यावत्कथिक सामायिक संयत' कहते हैं ।
जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद और महाव्रतों में उपस्थापन ( आरोपण ) होता है, उसे 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं अथवा पूर्व पर्याय का छेद कर के जो महाव्रत . दिये जाते हैं, उसे 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं । यह चारित्र भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है । मध्यवर्ती तीर्थंकरों के तार्थ में नहीं होता । इसके दो भेद हैं- सातिवार और निरतिचार । इत्वर सामायिक वाले साधु के और एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधु के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह 'निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है । मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह 'सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है । छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले साधु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में ही होते हैं ।
जिस चारित्र में परिहार ( तप विशेष ) से कर्म - निर्जरा रूप शुद्धि होती है, उसे
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