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भगवती
सूत्र - श. २५ उ. ७ गति द्वार
बकुश के समान है । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी, किन्तु यह जन्म और सद्भाव की अपेक्षा चारों पलिभाग ( सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा और दुषमसुषमा के समान काल ) में नहीं होते । संहरण की अपेक्षा किसी भी पलिभाग में होते हैं। शेष पूर्ववत् ।
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२७ प्रश्न - परिहारविसुद्धिए - पुच्छा ।
२७ उत्तर - गोयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणी: काले वा होज्जा, णोओसप्पिणी- गोउस्सप्पिणीकाले णो होज्जा । जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा - जहा पुलाओ । उस्सप्पिणीकाले वि जहा पुलाओ। सुहुमसंपराइओ जहा णियंठो एवं अहम्खाओ वि (१२) । भावार्थ - २७ प्रश्न - हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत, अवसर्पिणी काल में होते हैं ० ?
२७ उत्तर - हे गौतम ! अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल में होते हैं, किन्तु नोअवसर्पिणी- नो उत्सर्पिणी काल में नहीं होते । यदि अवसर्पिणी काल अथवा उत्सर्पिणी काल में होते हैं, तो पुलाकवत् । सूक्ष्म संपराय संयत और यथाख्यात संयत का काल निर्ग्रन्थ के समान है ( १२ ) ।
विवेचन -- नोअवसर्पिणी - नोउत्सर्पिणी के सुषमादि समान तीन प्रकार के काल में (देवकुरु आदि में ) कुश का जन्म और सद्भाव का निषेध किया है और दुषमसुषमा समान काल में ( महाविदेह क्षेत्र में ) सद्भाव कहा है । छेदोपस्थापनीय संयत का चारों पलिभाग में अर्थात् देवकुरु आदि में तथा महाविदेह में निषेध किया है ।
गति द्वार
२८ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते ! कालगए समाणे किं (कं)
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