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भगवती सूत्र - २५ उ. ६ काल द्वार
५८. उत्तर - गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुमसुममापलिभागे होज्जा जहेव पुलाए जाव दूममसुसमापलिभागे होज्जा । साहरणं पडुच्च अण्णयरे पलिभागे होज्जा, जहा बउसे । एवं पडि - सेवणाकुसीले वि एवं कसायकुसीले वि। णियंठो सिणाओ य जहा पुलाओ । णवरं एएसिं अमहियं साहरणं भाणियव्वं, सेसं तं चेव १२ ।
कठिन शब्दार्थ - अमहियं -- अत्यधिक - अधिक ।
भावार्थ-५८ प्रश्न हे भगवन् ! यदि बकुश, नोअवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल में होते हैं, तो किस काल में होते हैं ?
५८ उत्तर - हे गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा सुबमसुषमा समान काल में नहीं होते, इत्यादि सभी पुलाक के समान यावत् दुषमसुषमा समान काल में होते हैं । संहरण की अपेक्षा किसी भी काल में होते हैं । बकुश के समान प्रतिसेवना-कुशील और कषाय- कुशील भी । निग्रंथ और स्नातक का कथन पुलाक के समान है, किन्तु इनका संहरण अधिक कहना चाहिये अर्थात् संहरण' की अपेक्षा सर्वकाल में होते हैं, शेष पूर्ववत् ।
विवेचन -- काल तीन प्रकार का कहा है। अवसर्पिणी काल, उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल । जिस काल में जीवों की आयु, बल, शरीर आदि भाव उत्तरोत्तर घटते जायें, वह 'अवसर्पिणी काल' है । यह दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । जिस काल में जीवों की आयु. बल, शरीर आदि भावों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती 'जाय, वह 'उत्सर्पिणी काल' है । यह भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । पाँच भरत और पाँच ऐरवत -- इन दस क्षेत्रों में यह दो प्रकार का काल होता है । जिस काल में भावों की हानि-वृद्धि न हो और सदा एक से परिणाम रहते हों, उस काल को 'नोअवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल' कहते हैं । यह काल पाँच महाविदेह में और हैमवत आदि युगलिक क्षेत्रों में होता है ।
अवसर्पिणी काल के छह आरे हैं। यथा-१ सुषमसुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमदुषमा,
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