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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ काल द्वार
विवेचन-चारित्र की प्राप्ति को 'आकर्ष' कहा है। इस प्रकार का आकर्ष पुलाक के जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन होते हैं । बकुश के जघन्य और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं।
निग्रंथ के एक भव में जघन्य एक होता है और दो बार उपशम-श्रेणी करने से उत्कृष्ट दो आकर्ष होते हैं ।
पुलाक के एक भव में एक और दूसरे भव में पुनः एक, इस प्रकार अनेक-भत्र में जघन्य दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं । पुलाकपन उत्कृष्ट तीन भव में होता है । इनमें से एक भव में उत्कृष्ट तीन आकर्ष होते हैं। प्रथम भव में एक आकर्प और दूसरे दो भवों में तीन-तीन आकर्ष होते हैं इत्यादि विकल्प से सात आकर्ष होते हैं ।
बकुशपन के उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। इनमें से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं । जबकि आठ भवों में उत्कृष्ट प्रत्येक भव- में नौ सौ-नौ सौ आकर्ष हों,तो उनको आठ से गुणा करने पर सात हजार दो सौ होते हैं । इस प्रकार बकुश के अनेक भव की अपेक्षा, सहस्रपृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं।
सकते हैं। निग्रंथपन के उत्कृष्ट तीन भव होते हैं । उनमें से प्रथम भव में दो आकर्ष और दूसरे भव में दो आकर्ष तथा तीसरे भव में एक आकर्ष होता है । क्षपक निग्रंथपन का आकर्ष कर के सिद्ध होता है । इस प्रकार अनेक भवों में निग्रंथपन के पांच आकर्ष होते हैं । स्नातक तो उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं । इसलिये उनके अनेक भव और आकर्ष नहीं होते।
काल द्वार
१३६ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कालओ केवचिरं होई ?
१३६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहत्तं ।
भावार्थ-१३६ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक कितने काल तक रहते हैं? १३६ उत्सर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त
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