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भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ वेद द्वार
है । अपरिश्रावी-सम्पूर्ण काय-योग का सर्वथा निरोध कर लेने पर, स्नातक निष्क्रिय हो जाता है और कर्म-प्रवाह सर्वथा रुक जाता है । इसलिये वह 'अपरिश्रावी' होता है । टीकाकार ने स्नातक के इन अवस्थाकृत भेदों की व्याख्या नहीं की है । अतः शक्र, पुरन्दर आदि के समान इनका शब्दकृत भेद होता है-ऐसा संभवित है ।
वेद द्वार
९ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सवेयए होजा, अवेयए होजा ? ९ उत्तर-गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेयए होजा। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाफ सबेदी होता है या अवेदी ? ९ उत्तर-हे गौतम ! वह सवेदी होता है, अवेदी नहीं ।
१० प्रश्न-जइ सवेयए होजा किं इत्थिवेयए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसणपुंसगवेयए होजा ? ..... १.० उत्तर-गोयमा ! णो इथिवेयए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसणपुंसगवेयए वा होजा।
___ भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन ! पुलाक सवेदी होता है, तो क्या स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता हैं या पुरुष नपुंसकवेदी होता है ?
१० उत्तर-हे गौतम ! स्त्रीवेदी नहीं होता, किन्तु पुरुषवेदी या पुरुषनपुंसकवेदी होता हैं।
११ प्रश्न-बउसे णं भंते ! किं सवेयए होजा, अवेयए होजा ? . ११ उत्तर-गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेयए होजा। .
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