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प्रस्तावना
२५
स्वीकार किया गया है और अलंकारशास्त्रियोंने शब्द, पद, वाक्य, खण्ड-वाक्य और महावाक्यको वचन बताया है। शब्दके रूढ़, यौगिक और योगरूढ़ भेदोंका कथन किया है । इसी प्रसंगमें पद, वाक्य, खण्ड-वाक्य और महावाक्यके लक्षण और उदाहरण भी आये है । ग्रन्थकारने एक सौ पचपनवें पद्यसे व्यंजनावृत्तिका स्वरूप-कथन किया है । यह तीन प्रकारको होती है.--१. शब्द-शक्तिमूला, २. अर्थ-शक्तिमूला और ३. उभयशक्तिमूला।
प्राकरणिक अर्थमें पर्यवसित होने वाली अभिधावृत्ति अप्राकरणिक अर्थका बोध कराने में समर्थ नहीं हो सकती है। अतः कविके इस प्रकारके अर्थका बोध व्यंजना नामक व्यापार द्वारा होता है। अतएव इन पद्यों द्वारा अजितसेनने व्यंजनावृत्तिका अस्तित्व सिद्ध किया है।
रसकी स्थितिका बोध कराने वाली कौशिकी, आरभटी, सात्वती और भारती वृत्तियोंका निरूपण आया है। और इन वृत्तियोंके भेद-प्रभेद भी बतलाये गये हैं । एक सौ तिहत्तर पद्यमें व्यंग्यार्थके अप्रधान, प्रधान और अस्पष्ट रहनेके कारण काव्यके मध्यम, उत्तम और जघन्य भेद बतलाये गये हैं। व्यंग्यार्थके मुख्य न होने पर मध्यम या गुणीभूत व्यंग्य, व्यंग्यार्थके मुख्य रहने पर उत्तम या ध्वनिकाव्य और व्यंग्यार्थके अस्पष्ट रहने पर अधम या चित्रकाव्य कहा जाता है। इस प्रकार लक्ष्य, व्यंग्य और ध्वन्यर्थका निरूपण हुआ है। एक सौ नब्बेवें पद्यसे गुण और दोषोंका निरूपण किया गया है। काव्यके महत्त्वको घटानेका कारण शब्द और अर्थमें रहने वाला दोष है। इस प्रकार पद और वाक्य-दोषोंके साथ अर्थ-दोषों का भी कथन आया है। अजितसेनने चौबीस वाक्य-दोष माने हैं---
१. छन्दश्च्युत-छन्दोभंग । २. रीतिच्युत-रसके अनुरूप रीतिका अभाव । ३. यतिच्युत-यतिभंग । ४. क्रमच्युत-शब्द या अर्थका क्रमसे न होना । ५. अंगच्युत-क्रियापदसे रहित । ६. शब्दच्युत । ७. सम्बन्धच्युत-समागत पदोंका परस्परमें अन्वयाभाव । ८. अर्थच्युत-आवश्यक वक्तव्यका अभाव । ९. सन्धिच्युत । १०. व्याकीर्ण-विभक्तियोंमें आपस में अन्वयाभाव । ११. पुनरुक्त-पुनरावृत्ति ।। १२. अस्थित समास--समासका अनौचित्य । १३. विसर्गलुप्त। १४. वाक्याकीर्ण-एक वाक्यके पद दूसरे वाक्य में व्याप्त हों।
१५. सुवाक्यगभित-बीच में अन्य वाक्योंका आना । Jain Education btex Jonal For Private & Personal Use Only
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