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इतना स्पष्ट और एकत्र उल्लेख सम्भवतः अन्यत्र नहीं है । अतएव इस परिच्छेद में निम्नलिखित विशेषताएँ उपलब्ध हैं
१. अलंकारोंके लक्षणों में विभच्छेदक पदोंका प्रयोग एवं पदोंकी सार्थकता ।
२. अलंकारोंमें पारस्परिक अन्तरका विश्लेषण |
३. उपमाके भेद - प्रभेदोंका नयी दृष्टिसे विचार-विनिमय ।
४. अलंकार विभाजन के आधारका निरूपण ।
प्रस्तावना
५. स्वमतकी पुष्टि के लिए अन्य अलंकारशास्त्रियोंके वचनोंका प्रस्तुतीकरण 1 पंचम परिच्छेद में रस, रीति, शब्द-शक्तियाँ, वृत्तियाँ, गुण, दोष, एवं नायकनायिका के भेदोंका कथन आया है । इस परिच्छेद में चार सौ छह पद्य हैं । परिच्छेदका आरम्भ रसके स्वरूप - विश्लेषण द्वारा हुआ है । आचार्य अजितसेनने जैनदर्शन के आलोक में स्थायीभाव एवं उसके द्वारा अभिव्यक्त रसका स्वरूपांकन किया है। बताया है कि ज्ञानावरण और वीर्य-अन्तराय कर्मके क्षयोपशम होनेसे इन्द्रिय और मनके द्वारा प्राणीको इन्द्रिय-ज्ञान उत्पन्न होता है । इन्द्रिय ज्ञानसे संवेद्यमान मोहनीयकर्मसे उत्पन्न रसकी अभिव्यक्ति करनेवाला जो चिद्वृत्तिरूप पर्याय है, वह स्थायीभाव कहलाता है । स्थायीभाव रसका अभिव्यंजक है ।
अनुभव तीन प्रकारके माने गये हैं - १. संवेदनात्मक, २. भावात्मक और ३. संकल्पात्मक । स्थितिमात्रका अनुभव संवेदन है । जैनदर्शनकी दृष्टि से यही इन्द्रियज्ञान है । व्यक्तिका ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम जिस कोटिका होगा उसी कोटिका यह ज्ञान भी स्पष्टतर और स्पष्टतम होगा । वस्तुको देखकर जो प्रीति या घृणाकी अनुभूति होती है वह भी एक प्रकारका भाव है । जैनदर्शन में मोहनीयकर्मके उदय होनेपर इन्द्रियजन्य ज्ञान या संवेदन भावके रूपमें परिणत होता है और इसी भावसे रसकी अभिव्यक्ति होती है ।
संवेदनाओंके गुणका नाम भाव है । जिस प्रकार प्रत्येक संवेदनमें मन्दता या तीव्रताका गुण होता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्मके सद्भाव के कारण संवेदन में सुखमय या दुःखमय होने का भी गुण होता है। इसी गुणके कारण संवेदनाएँ भावात्मक रूप ग्रहण करती हैं । प्रत्येक संवेदन किसी न किसी इन्द्रिय से सम्बन्ध रखता है और जब यह संवेदन वेदनीय सहकृत मोहनीय कर्मके कारण हर्ष या विषाद से जुड़ जाता है तो वह भावका रूप ग्रहण कर लेता है । भाव विषयी से सम्बन्ध रखते हैं और संवेदन विषयसे । भावोंका उदय या अस्त किसी बाह्य पदार्थ की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर निर्भर नहीं रहता पर संवेदन सदा किसी अन्य पदार्थ की अपेक्षा रखता है । अतः स्पष्ट है कि संवेदनके उत्तरकालमें ही भाव उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और शम ये स्थायी भाव इन्द्रिय संवेदनोंसे उत्पन्न होते हैं । स्थायीभाव की उत्पत्ति, वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके साथ वेदनीय सहकृत मोहनीयके उदयके कारण होती है । इस प्रकार अजितसेनने रस
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