Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 15
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] बहवस्त्रादिखण्डसङ्घातनिष्पन्नो वस्त्रविशेषः। | संघात- सङ्घातं-अधिकं गात्रसंकोचनम्। आचा० ५५। कञ्चुकवत्। अनुयो० १३। सङ्घातिम-यत्परस्परतो अन्योन्यगात्रसंकोचनम्। आव० १११ परोप्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते। भग० ४७७। गत्ताणं संपिंडणा। दशवै० ६९। संघाए- अनन्तानां परमाणनां विशि-ष्टैकपरिणामापत्तिः | संघातत्ता- सङ्घातत्त्वं-तथारूपशरीरपरिणतिभावः। सङ्घातः। अनुयो० १७६) जीवा० ३४१ संघाएइ-सङ्घटयति अन्योऽन्य गात्रैः संहतं करोति। संघातिम- सङ्घातिमं-यत्परस्परतः। भग. २३० पुष्पनालादिसङ्घातनेनो-पजन्यत इति। स्था० २८६) संघाएति-सङ्घातयत्ति परस्परं सङ्गातमापन्नं कुर्वति। सङ्घातिमं-सङ्घातनिष्पादयम्। ज्ञाता० २७९। प्रज्ञा० ५९२० चोलकादि। आचा० ४१४। निशी० ७९) संघाएह- सङ्घातयथ-संहतां कुरुथ। भग० ३८१। गतिपट्टापव्वारेण| निशी० ७९ अ। संघाओ-सङ्घातः प्राथमिको ग्रहः। आव० ४६२। संघातेत- सङ्घातयतः-पूरयतः। सूर्य. २२॥ संघाड-सङ्घाटः ज्ञातायां द्वितीयमध्यनम्। आव०६५३। | | संघाय-सङ्घातः-परस्पर गात्रसंस्पर्शपीडारूपः। दशवै. सम० ३६। सङ्घातः-षष्ठाङ्गे द्वितीयं ज्ञातम्। उत्त. १५६। ६१४। शृङ्गारकम्। प्रज्ञा०४०। सङ्घाटकः संघायणनाम- सङ्घात्यन्ते-पिण्डीक्रियन्ते श्रेष्ठिचौरयोरेकबन्धन औदारिकादिपु-गला येन तत्सङ्घातं तच्च तन्नाम च बद्धत्वमिदमप्यभीष्वर्थज्ञापकत्वात् ज्ञातमेवः। ज्ञातायां सङ्घातनाम। प्रज्ञा०४७०| द्वितीयमध्ययनम्। ज्ञाता० १० सङ्घाटः संघायणा-संघातना। आव० ४१० संघातनासमानलिङ्गयुग्म-रूपम्। राज०६९। सङ्घाटकम्। संहन्यमानानां -संयुज्यमानानामौदारिकादिपुद्गलानां आव० ९१। सङ्घाडो-युग्मवाची। जम्बू० २३॥ तैजसकार्मणपुद्गलैः सह संघाडइल्ल-सङ्घाटकीयः। आव०८६३। सङ्घाटिकः। यदात्मनस्तत्त्पुद्गलग्रहणात्मिकासु तदनुकूलक्रियासु निशी० ९६ आ। वर्तनात्मकं प्रयोजकत्वं सा। उत्त० १९८१ संघाडओ-सङ्घाटकः। आव० ३६७। संघायणिज्ज-संघातनीया-प्रमाणपुरुषतया मीलनीयः। संघाडगो-सङ्घाटकः। आव० ८३८1 उत्त०५९३। संघाडि- संघाटी-निर्ग्रन्थिकाप्रच्छदविशेषः। ज्ञाता० २०४। | संघाययति-सङ्घातयति-योजयतिः। दशवै०१६२। सङ्घाटी- वस्त्रसंहतिजनिता। उत्त० २५०| संघायसंखा- दय्यायक्षरसंयोगरूपाः सङ्ख्येयाः संगडिए- समर्थः तद्दिवसपर्याप्तभोजी वा। बह. १७९ अ। सङ्घातस-ङ्ख्याः। अनुयो० २३३ सङ्घाटिकः सहचारी। जम्बू. १२३। संघाया-सङ्घाता-द्विधा पर्यवाणामक्षराणां च। बृह०४३। संघाडिम- कंचुकादिसु कट्टसंबंधीसु वा संघाडिम। निशी संचइया- घयगुलमोइगाइणा जे अविणासी। निशी० २०२ ७१ आ। आ। संचयसंजात एषामिति संचयिताः संघाडिया- शृङ्घाटिका। आव०६२२॥ तारकादिदर्शनादितः प्रत्ययः येषां षण्यां मासानां परतः संघाडी- सङ्घाटी। आव० ३१३। सङ्घाटी। ओघ० २०९। सप्तमासादिकं यावदुत्क-र्षतोऽशीतं शतं मासानां सङ्घाटी-कल्पद्वयं त्रयं वा। आचा० ३०९। सङ्घाटी:- प्रायश्चित्तप्राप्तास्ते संचयिताः। व्यव० ९७ आ। उत्त-रीयविशेषरूपः। स्था० १८७। प्रायेण संचतिता-जे छण्हं मासाणं पारणपिच्छित्तं पत्ता तं संघडिज्जंतित्ति संघाडी गुणसंघायकारिणी वा संघाडी। सत्तमा-सादि जाव आसी तं सतं मासाणं ठितेसिं निशी०६३ उवणारोवणविभा-गेण दिवसा घेत्तुं छम्मासो संघाडए- संघाटकः-साधुयुग्मम्। बृह. ८६ आ। णिप्पाएता दिज्जंति। निशी. १२२ आ। संघाडेति-संघातयति। आव० ९९। | संचय- संचीयते संचयनं वा सञ्चयः, परिग्रहस्य द्वितीयं मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [15] "आगम-सागर-कोषः" [५]

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