Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति के सुझाव से अन्य पांच आवश्यकों की नियुक्ति गाथाओं को दूसरे खंड में रखने का विचार किया गया।
इस ग्रंथ का संपादन इतना सरल कार्य नहीं था क्योंकि इस पर विपुल मात्रा में व्याख्या साहित्य मिलता है। गाथाओं के बारे में भी सभी व्याख्याकार एकमत नहीं हैं। सभी व्याख्याकारों के अभिमतों पर गहन चिंतन करके पादटिप्पण तैयार किए गए हैं। सामायिक नियुक्ति की गाथा संख्या में हर व्याख्याकार में विसंवादिता है अत: दूसरे परिशिष्ट में हमने 'गाथाओं का समीकरण' इस शीर्षक से चार्ट प्रस्तुत कर दिया है जिससे किसी भी टीका की व्याख्या को सुगमता से खोजा जा सके। कथा की दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यंत समृद्ध है। इस ग्रंथ की कथाओं पर एक विस्तृत शोध प्रबंध लिखा जा सकता है। हमने परिशिष्ट ३ में सारी कथाओं का हिन्दी में अनुवाद कर दिया है। यह अनुवाद जहां सामान्य जनता के लिए प्रेरक बनेगा वहां कथा के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी उपयोगी बनेगा। कथा का विस्तार प्रायः व्याख्या ग्रंथों में हुआ है अत: उनके संदर्भ स्थलों का भी संकेत कर दिया है। चौथे परिशिष्ट में तुलनात्मक संदर्भो का संकेत है।
मैं अपना सौभाग्य मानती हूं कि दीक्षित होने से पूर्व ही पूज्य गुरुदेव एवं आचार्य प्रवर ने मुझे आगम के कार्य में जोड़ दिया। तब से अब तक लगभग २२ सालों से कभी धीमी गति से तो कभी तीव्र गति से आगम का कार्य चलता रहा है। आगम कार्य करते हुए मेरे मस्तिष्क में सदैव गुरुदेव की ये पंक्तियां गूंजती रहती हैं- 'आज साहित्य की ऐसी स्थिति बन गयी है कि पुराने साहित्य को भुला दिया गया है, जो जीवन का अमर संदेश देता था एवं मानवता के राजपथ की ओर अग्रसर करता था। प्राचीन आगम-साहित्य एवं उनके व्याख्या ग्रंथों को समालोचनात्मक दृष्टिकोण से संपादित करके जनता के समक्ष रखा जाए. यह मेरी हार्दिक इच्छा है क्योंकि इससे भारतीय साहित्यिक निधि की सहज अवगति और प्राचीन आचार्यों की सूक्ष्म मेघा का ज्ञान होता है। इस कार्य के बीच में अनेक अवरोध आए लेकिन गुरु-कृपा से सारे अवरोध दूर होते गए और मार्ग प्रशस्त होता गया। मेरा निश्चित विश्वास है कि ऐसे गुरुतर कार्य गुरु एवं संघ की शक्ति से ही संभव हैं। पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से डॉ. नथमल टांटिया के निर्देशन में सन् १९९६ में मैंने इस ग्रंथ को पी-एच.डी. के लिए प्रस्तुत किया था।
__ पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की अभीक्ष्ण स्मृति और उनका अप्रत्यक्ष सहयोग मेरे मार्ग को प्रशस्त करता रहा है। यह निर्विवाद सत्य है कि आचार्यवर और युवाचार्यश्री की कृपा दृष्टि, आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन से ही यह कार्य सम्पन्न हो सका है। आचार्य प्रवर ने घोषित यात्रा को स्थगित कर मुझ पर जो कृपा की, उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है। निराशा के क्षणों में साध्वी प्रमुखाजी ने जिस उत्साह और स्नेह का संचार किया, समय समय पर प्रोत्साहन दिया वह मेरे लिए अविस्मरणीय है। पिछले १९ वर्षों से मुनिश्री दुलहराजजी का मार्गदर्शन मुझे मिलता रहा है। इस बार प्रत्यक्ष सन्निधि का मार्गदर्शन भले ही न मिला हो पर अनुवाद का अधिकांश कार्य उनकी लेखनी से सम्पन्न हुआ है। मुनिश्री हीरालालजी स्वामी का आत्मीय सहयोग भी मूल्याई रहा है। आदरणीय नियोजिकाजी, सहयोगिनी समणीजी एवं समस्त समणी परिवार की शुभकामना मेरे पथ को प्रशस्त करती रही है। जैन विश्व भारती संस्थान के कुलपति की प्रेरणा इस कार्य की शीघ्र संपूर्ति में सहायक बनी है। मैं प्राकृत एवं जैनागम विभाग के विभागाध्यक्ष भट्टाचार्यजी एवं सभी प्राध्यापकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं, जिन्होंने मुझे अध्यापन के कार्य से मुक्त रखकर इस कार्य के लिए पूरा समय दिया। बहिन कुसुमलता ने अत्यन्त परिश्रम एवं एकाग्रता से इस जटिल कार्य को कम्प्यूटर पर सेटिंग किया है। प्रूफ रीडिंग में बहिन अलका सिन्हा के सहयोग ने भी कार्य को हल्का किया है।
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