Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
२१२
आवश्यक नियुक्ति ३४७. भगवान् ने कभी नित्य भोजन नहीं किया। उपवास भी नहीं किया। उन्होंने ६२९ बेले किए। ३४८. बारह वर्ष से कुछ अधिक छद्मस्थ काल में भगवान् की जघन्य तपस्या बेले की थी। उनका पूरा तपः-कर्म अपानक अर्थात् पानी के आभोग के बिना का था। ३४९. भगवान् के सर्व पारणक दिन ३४९ थे। उन्होंने उत्कटुक निषद्या तथा प्रतिमा में अवस्थिति अनेकदिन शतबार की थी। ३५०,३५१. प्रव्रज्या के प्रथम दिन को गिनने पर भगवान् का छद्मस्थ काल बारह वर्ष साढे पांच मास का रहा। ३५२. इस प्रकार तपोगुण में रत महावीर घोर परीषह को सहते हुए विहरण कर रहे थे। ३५३. छाद्यस्थिक ज्ञान नष्ट होने पर तथा अनंत ज्ञान-केवलज्ञान उत्पन्न होने पर रात्रि में भगवान् महासेनवन उद्यान में पहुंच गए। ३५४. इन्द्रों तथा नरेन्द्रों द्वारा पूजित भगवान् महावीर ने धर्मवरचक्रवर्तित्व को प्राप्त कर लिया। दूसरा समवसरण मध्यम पावा में हुआ। ३५५,३५६. मध्यम पावा में सोमिल नामक ब्राह्मण के यज्ञकाल में पौरजन तथा जनपद के लोक उसके यज्ञवाट में आए। उस यज्ञवाट के एकान्त और विविक्त उत्तरपार्श्व में देवेन्द्र तथा दानवेन्द्र जिनेश्वर देव की पूजा-महिमा कर रहे थे। ३५६/१. समवसरण की वक्तव्यता के ये द्वार हैं१. समवसरण
६. श्रोता-परिणाम २. कितनी सामायिक?
७. दान ३. रूप-भगवान का रूप। ८. देवमाल्य। ४. पृच्छा
९. माल्यानयन। ५. व्याकरण
१०. उपरितीर्थ-पौरुषी के बाद गणधरों की देशना। ३५६/२. जहां पहले कभी समवसरण नहीं हुआ हो अथवा जहां भूतपूर्व समवसरण में महर्द्धिक देव आता हो, वहां आभियोगिक देव पानी एवं फूलों के बादलों की विकुर्वणा करते हैं फिर प्राकार-त्रिक की रचना करते हैं। ३५७. आभियोगिक देव समवसरण के योजन-परिमाण भूभाग को नाना मणि, कनक और रत्नों से विचित्र तथा सुरभित जल से सुगंधमय बनाते हैं।
१. आभियोगिक देवता रज आदि दूर करने के लिए वायु की विकुर्वणा करते हैं तथा भावी रज के संताप की उपशांति हेतु
जलवृष्टि एवं पृथ्वी की विभूषा के लिए पुष्प के बादलों की विकुर्वणा करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org