Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
आवश्यक नियुक्ति
२१५ ३६२/१०. समवसरण में पहले से स्थित अल्प ऋद्धिक देव आने वाले महर्द्धिक देवों को वंदना करते हैं। यदि महर्द्धिक देव पहले से वहां निषण्ण हैं तो भी अल्प ऋद्धिक देव उनको प्रणाम करते हुए अपने स्थान पर जाते हैं। वहां उनमें न पीड़ा, न विकथा, न परस्पर मत्सरभाव और न भय होता है। ३६२/११. समवसरण के दूसरे प्राकार में तिर्यञ्च तथा तीसरे में यान-वाहन होते हैं। प्राकार के बाहर तिर्यञ्च, मनुष्य और देव-ये पृथक्-पृथक् भी होते हैं और साथ में भी। ३६२/१२. भगवान् की देशना से कोई न कोई सर्वविरति, देशविरति अथवा सम्यक्त्व सामायिक को ग्रहण करता है, उनकी देशना अन्यथा नहीं होती क्योंकि भगवान् अमूढलक्ष्य होते हैं। यदि वे देशना न दें तो देवों के समवसरण-निर्माण का प्रयास व्यर्थ हो जाता है। भगवान् के कथन से कोई प्रतिबुद्ध न हो, ऐसा नहीं होता। ३६२/१३. मनुष्य चार सामायिकों में से किसी एक को तथा तिर्यञ्च तीन अथवा दो सामायिकों को ग्रहण कर सकता है। यदि मनुष्य और तिर्यञ्च में कोई भी सामायिक ग्रहण करने वाला नहीं हो तो नियमतः देवता सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं। ३६२/१४. देशना देने से पूर्व तीर्थंकर तीर्थ को प्रणाम कर सर्व सामान्य शब्दों में प्रवचन करते हैं। भगवान् की वाणी योजनगामिनी तथा सभी संज्ञी प्राणियों (देव, नारक और तिर्यञ्चों) के लिए गम्य होती है। ३६२/१५. तीर्थंकर द्वारा तीर्थ को प्रणाम करने के ये प्रयोजन हैं
. तीर्थ के कारण ही तीर्थंकर कहलाते हैं। • पूजित-पूजा अर्थात् अर्हत् स्वयं पूजनीय होते हैं। कृतकृत्य होने पर भी उनके द्वारा तीर्थ की
पूजा होने से तीर्थ की प्रभावना वृद्धिंगत होती है।
• विनयधर्म की प्रस्थापना होती है। ३६२/१६. जिस श्रमण ने पहले कभी समवरण नहीं देखा हो, अथवा जहां अभूतपूर्व समवसरण हो तो श्रमण बारह योजन से आ सकता है। यदि अवज्ञा से वह नहीं आता है तो उसे चतुर्लघुक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ३६२/१७. सभी देव (अपनी सर्वांग सुन्दर रूप निर्मापण शक्ति से) अंगुष्ठप्रमाण मात्र रूप की विकुर्वणा करें तो भी वह जिनेश्वर देव के पादांगुष्ठ के समान भी शोभित नहीं होता। उसके समक्ष वह केवल कोयले
१. चार सामायिक-१. सम्यक्त्व सामायिक २. श्रुत सामायिक ३. देशविरति सामायिक ४. सर्वविरति सामायिक (चारित्र
सामायिक)। २. तीर्थंकर तीर्थ को प्रणाम करके प्रवचन करते हैं, यह नियुक्तिकार की मान्यता है। ३. आवचू. १ पृ. ३२९; साहारणेणं सद्देणं अद्धमागहाए भासाए, सा वि य णं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी सव्वेसिं तेसिं
आरियमणारियाणं अप्पप्पणो भासापरिणामेणं परिणमति–तीर्थंकर साधारण शब्दों के माध्यम से अर्धमागधी भाषा में उपदेश देते हैं। उनके शब्द आर्य-अनार्य सबकी अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाते हैं अत: संज्ञी प्राणी उन शब्दों को समझ लेते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org