Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 513
________________ ४५२ परि. ३ : कथाएं के घर में लकड़ी काटी जा रही थी। उसकी एक शलाका क्रौंच पक्षी के गले पर लगी जिससे उसने सारे स्वर्ण-यवों का वमन कर दिया। लोगों ने स्वर्णकार से कहा- 'अरे पापिष्ठ! ये रहे तेरे यव।' मुनि कालगत होकर सिद्ध गति को प्राप्त हो गए। लोगों ने आकर मेतार्य मुनि को मृत अवस्था में देखा। बात राजा तक पहुंची। राजा ने स्वर्णकार के वध की आज्ञा दे दी। वधक स्वर्णकार के घर गए। स्वर्णकार के सभी सदस्य द्वार बंद कर प्रवजित हो गए और बोले-'श्रावक धर्म से बढ़ो।' यह सुन राजा ने उन्हें मुक्त कर दिया और कहा-'यदि मुनित्व को छोड़कर उत्प्रव्रजित हुए तो मैं सबको तैल के कड़ाह में उबाल दूंगा।" ११४. कालकाचार्य से पृच्छा तुरुमिणी नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। वहां भद्रा नाम की ब्राह्मणी रहती थी। उसके पुत्र का नाम दत्त था। दत्त के मामे का नाम आर्यकालक था। वे प्रव्रजित हो गए थे। दत्त मदिरा और द्यूत का व्यसनी था। वह चाटुकारिता करने लगा और एक दिन प्रधान दंडिक के पद पर आसीन हो गया। कुलपुत्र के साथ मिलकर उसने राजा को राज्य से बाहर निकाल दिया और स्वयं राजा बन गया। उसने अनेक यज्ञ करवाए । एक बार अपने मातुल आर्यकालक से कहा- 'मैं धर्म सुनना चाहता हूं। यज्ञों का फल क्या है?' आर्यकालक बोले- क्या धर्म पूछते हो?' आचार्य ने धर्म का स्वरूप बताया। पुनः प्रश्न पूछने पर आचार्य बोले- 'क्या नरक का मार्ग पूछते हो?' अधर्म का फल है नरक। फिर अशुभ कर्मों के उदय का फल पूछने पर वह भी बताया। पुनः पूछने पर आचार्य बोले- 'यज्ञ का फल है नरकगामिता।' क्रुद्ध होकर दत्त बोला- 'इसका प्रमाण क्या है?' आचार्य बोले- 'आज से सातवें दिन तुम श्वकुंभी में पकाए जाओगे?' दत्त बोला-'इसका प्रमाण क्या है ?' आचार्य ने कहा- 'सातवें दिन तुम्हारे मुंह में मल प्रवेश करेगा।' दत्त रुष्ट होकर बोला- 'आपकी मौत कब और कैसे होगी?' आर्यकालक बोले- 'मैं लंबे समय तक प्रव्रज्या का पालन कर देवलोक में जाऊंगा।' राजा ने रुष्ट होकर अपने आदमियों को कहा-इस मुनि को बांध दो। दंडिक भय से अभिभूत हो गए। उन्होंने राजा से कहा-'आप आगे आएं हम इसे बांधकर आपको अर्पि कर देंगे।' राजा एकान्त में प्रच्छन्नरूप से रहने लगा। उसे दिनों की विस्मृति हो गई। सातवें दिन राजपथ का शोधन हो रहा था। उसकी सुरक्षा की जा रही थी। एक पुजारी हाथ में पुष्पकरंडक लेकर प्रात:काल मंदिर की ओर जा रहा था। रास्ते में वह मलोत्सर्ग कर उसे पुष्पों से ढककर आगे चल दिया। राजा भी सातवें दिन अश्वसमूह के साथ आ रहा था। उसने सोचा, मैं उस श्रमण के पास जाऊं और उसका वध कर दूं। चलतेचलते एक किशोर अश्व ने मार्ग में मल पर पड़े उन पुष्पों को खुरों से कुरेदा। इससे मल के कण उछलकर पास में चल रहे राजा के मुंह में प्रविष्ट हो गए। राजा जान गया कि मैं मारा जाऊंगा। वह दंडिकों को पूछे बिना ही घर लौट पड़ा। उसने जान लिया कि दंडपुरुषों को मेरी मृत्यु का रहस्य ज्ञात हो गया है। दंडिकों ने सोचा- 'जब यह दत्त प्रासाद में प्रवेश करे, उससे पहले ही हम इसका निग्रह कर लें।' उन्होंने आगे आकर महाराज दत्त का निग्रह कर डाला। उसके स्थान पर दूसरा राजा बना दिया। फिर उन दंडिकों ने एक १. आवनि. ५६५/४, ५, आवचू. १ पृ. ४९२-४९५, हाटी. १ पृ. २४४-२४६, मटी. प. ४७६-४७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592