Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
५११ भोगों का परिणाम देख लिया है।' वह विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। इधर राजा ने अपने पुरुषों से कहा'देखो, यह कपटपूर्वक कहीं गणिका के घर तो नहीं गया है। स्थूलिभद्र मुनि चला जा रहा था। रास्ते में कुत्ते का सड़ा हुआ शव पड़ा था। मुनि ने दुर्गन्ध को रोकने के लिए अपने नाक पर कपड़ा नहीं दिया। पुरुषों ने आकर राजा को सारी बात कही। राजा ने सोचा- 'यह पूर्णतः भोगों से विरक्त हो गया है।' तब उसके छोटे भाई श्रीयक को अमात्य के पद पर स्थापित कर दिया।' २०७. सुंदरीनंद
नासिक्य नगर में नंद नाम का वणिक रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुंदरी था। सुंदरी के प्रति उसका बहुत प्रेम था। वह एक क्षण के लिए भी उसे नहीं छोड़ता था अतः लोगों ने उसका नाम सुंदरीनंद रख दिया। उसका भाई प्रव्रजित हो गया था। उसने लोगों से सुना कि नंद सुंदरी में बहुत आसक्त है।
आसक्ति के कारण कहीं मेरा भाई नरक में न चला जाए, यह सोचकर वह प्रतिबोध देने हेतु उसके यहां भिक्षा के लिए गया। नंद ने भाई को दान दिया। मुनि ने पात्र अपने भाई के हाथ में देकर कहा- 'मेरे साथ चलो।' 'मुनि अब मुझे छोड़ देंगे अब मुझे छोड़ देंगे' ऐसा सोचते-सोचते मुनि उसे उद्यान तक ले गए। लोगों ने नंद के हाथ में पात्र देखकर उसका उपहास करते हुए कहा- 'सुंदरी नंद प्रव्रजित हो गया है।' उद्यान में जाने पर साधु ने उसे देशना दी। किन्तु नंद का अपनी पत्नी के प्रति तीव्र अनुराग था अतः मुनि उसे संयम मार्ग पर लाने में समर्थ नहीं हुए। मुनि वैक्रियलब्धि से सम्पन्न थे अतः उन्होंने सोचा-'अन्य कोई उपाय सफल नहीं हो सकता इसे कोई अतिशायीं वस्तु दिखाकर प्रलोभन दूंगा।'
मुनि ने मेरु पर्वत की विकुर्वणा की लेकिन पत्नी के वियोग के भय से उसने उसकी इच्छा नहीं की। मुनि ने मर्कटयुगल की विकुर्वणा कर नंद से पूछा- 'सुंदरी और वानरयुगल में कौन सुंदर है ?' नंद बोला-'भगवन् ! मेरु और सर्षप की क्या तुलना?' फिर मुनि ने विद्याधर-युगल की विकुर्वणा कर पूछा"सुंदरी और विद्याधर-युगल में कौन सुंदर है ?' नंद बोला- 'दोनों समान हैं।' फिर मुनि ने देव-युगल दिखाकर पूछा-'देवयुगल और सुंदरी इन दोनों में कौन सुंदर है?' वह बोला-'भगवन्! इस देवयुगल के समक्ष तो सुंदरी वानरी जैसी लगती है।' नंद ने पूछा- 'यह कैसे प्राप्त की जा सकती है?' तब मुनि बोले'थोड़ा सा धर्माचरण करने से इसे प्राप्त किया जा सकता है।' उसने धर्म स्वीकार कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। अपने भाई को प्रतिबोध देने के लिए साधु की यह पारिणामिकी बुद्धि थी। २०८. वज्रस्वामी
संघ का अपमान न हो इसलिए बचपन में ही वज्रस्वामी ने मां का अनुवर्तन नहीं किया। उज्जयिनी में देवताओं ने उन्हें वैक्रियलब्धि दी इसलिए पाटलिपुत्र में वैक्रियलब्धि का प्रयोग किया। पुरिका नगरी में प्रवचन की प्रभावना हेतु फूलों का ढेर लेकर आए। विस्तार हेतु देखें कथा सं. पृ. ९४ ।
१. आवनि ५८८/२३, आवचू. १ पृ. ५६६, हाटी. १ पृ. २९०, २९१, मटी. प. ५३३। २. आवनि ५८८/२३ आवचू. १ पृ. ५६६, हाटी. १ पृ. २९१, मटी. प. ५३३ । ३. आवनि ५८८/२३, आवचू. १ पृ. ५६६, हाटी. १ पृ. २९१, मटी. प. ५३३ ।
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