Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 578
________________ आवश्यक नियुक्ति ५१७ के नवनिर्मित बर्तनों को कंकरों से काना बना रहा था, उनमें छेद कर रहा था। कुंभकार ने सावधान होकर देखा और शैक्ष मुनि से कहा- 'तुम मेरे बर्तनों को खण्डित क्यों कर रहे हो?' क्षुल्लक मुनि बोला'मिच्छामि दुक्कडं।' पुनः वह बर्तनों को ‘काना' कर 'मिच्छामि दुक्कडं' दोहराने लगा। कुंभकार ने तब क्षुल्लक मुनि का कान मरोड़ा। मुनि बोला- 'मेरे कान में पीड़ा हो रही है।' कुंभकार ने कहा- 'मिच्छामि दुक्कडं।' ज्यों-ज्यों मुनि कंकर फेंकता कुंभकार आकर उसका कान मरोड़ कर कहता ‘मिच्छामि दुक्कडं।' तब क्षुल्लक मुनि बोला- 'अहो, तुम्हारा 'मिच्छामि दुक्कडं' बहुत विचित्र है।' कुंभकार ने कहा- 'मुने! तुम्हारा 'मिच्छामि दुक्कडं' भी तो ऐसा ही है। मुनि बर्तनों को फोड़ने से विरत हो गया।" २२१. भाव प्रतिक्रमण (मृगावती) भगवान् वर्द्धमान स्वामी कौशाम्बी नगरी में समवसृत हुए। वहां चांद और सूर्य अपने मूल विमानों से भगवान् महावीर को वंदना करने आए। उस समय महाराज उदायन की माता साध्वी मृगावती दिवस मानकर चिरकाल तक वहीं उपासना में बैठी रही। शेष साध्वियां तीर्थंकर को वंदना कर अपने उपाश्रय की ओर प्रस्थित हो गईं। चांद-सूर्य भी तीर्थंकर को वंदना कर चले गए। उनके जाने के बाद अंधेरा हो गया। साध्वा मृगावती संभ्रान्त हो गई। वह तत्काल वहां से चली और आर्या चंदना के पास पहुंची। उस समय तक साध्वियों ने प्रतिक्रमण कर लिया था। मृगावती आलोचना करने आर्या चंदना के पास गई। आर्या चंदना ने कहा- 'आर्ये ! आज चिरकाल तक वहां कैसे रही? तुम्हारे लिए यह उचित नहीं है। तुम उत्तम कुल में जन्मी हो। तुम्हारा लंबे समय तक वहां एकाकी रहना अच्छा नहीं है।' वह सद्भाव से 'मिच्छामि दुक्कडं' कहती हुई आर्या चंदना के चरणों में लुठ गई। आर्य चंदना उस समय सोने के लिए अपने संस्तारक पर चली गई थी। उसे गहरी नींद आ गई। मृगावती जब पूर्ण संवेग से आर्या चंदना के पैरों में नत हुई, तभी उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। चंदना प्रसुप्त थी। मृगावती पास में स्थित थी। एक सर्प उसी मार्ग पर आ रहा था। आर्या चंदना का हाथ बिछौने से नीचे लटक रहा था। मृगावती ने सोचा- 'सर्प हाथ पर डंक न लगा दे, इसलिए उसने उस लटकते हुए हाथ को बिछौने पर चढ़ा दिया।' आर्या चंदना जाग उठी। उसने पूछा“यह क्या, अभी तक तुम बैठी हो?' 'मिच्छामि दुक्कडं' निद्रा-प्रमाद से मुझे क्यों नहीं उठाया? मृगावती बोली- 'सर्प आपको डस न ले, इसलिए मैंने आपका हाथ बिछौने पर रखा है।' आर्या चंदना बोली'कहां है सर्प?' मृगावती ने अंगुलिनिर्देश पूर्वक कहा- 'वह देखो, वहां।' आर्या चंदना को कुछ भी नहीं दिखाई दिया तब उसने पूछा-तुमने कैसे जाना? क्या कोई अतिशायी ज्ञान उत्पन्न हुआ है ?' मृगावती बोली- 'हां।' चंदना ने फिर पूछा- 'वह अतिशय ज्ञान छाद्मस्थिक है अथवा कैवलिक?' मृगावती बोली- 'कैवलिक।' आर्या चंदना उठी और मृगावती के चरणों में गिरकर बोली-'मिच्छामि दुक्कडं, मैंने केवली की आशातना की है।' यह भावप्रतिक्रमण है। चित्रकारसुता २२२. प्रसन्नचन्द्र राजर्षि क्षितिप्रतिष्ठित नगर में प्रसन्नचन्द्र राजा राज्य करता था। एक बार वहां भगवान् महावीर समवसृत १. आवनि. ६७३, आवचू. १ पृ. ६१४, ६१५, हाटी. १ पृ. ३२३, मटी. प. ५८४ । २. आवनि. ६७३, आवचू. १ पृ. ६१५, हाटी. १ पृ. ३२३, ३२४, मटी. प. ५८४। ३. आवनि. ६७४, कथा के लिए देखें नियुक्तिपंचक परि. ६ कथा सं. ५२ पृ. ५६९-७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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