Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
आवश्यक नियुक्ति
५०९ मरने की आलोचना करें।' क्षपक ने शिष्य की बात पर ध्यान नहीं दिया। शिष्य ने पुनः याद दिलाया। तपस्वी रुष्ट होकर शिष्य को मारने दौड़ा। वह एक खंभे से टकरा कर वहीं मर गया और एक स्थान में श्रामण्य से भ्रष्ट जीवों के कल में दष्टिविष सर्प के रूप में उत्पन्न हआ। सर्प के भव में उसे जातिस्मति उत्पन्न हो गयी। पूर्वभव को देखकर उसे संबोध प्राप्त हो गया। मेरे से कोई जीव मर न जाए इसलिए वह रात्रि में बाहर निकलता था। एक बार एक सर्प ने राजा के पुत्र को डस लिया, जिससे राजकुमार मर गया। राजा का सर्पो के प्रति प्रद्वेष हो गया। उसने यह आदेश दिया कि जो कोई सांप को मारकर लाएगा, उसे एक दीनार दी जाएगी। एक बार सर्पगवेषकों ने सर्प की रेखाएं देखीं। वे रेखाओं के सहारे सर्प के बिल तक पहुंचे और उस बिल में अनेक औषधियां डालीं। वे बाहर निकलते हए सो के सिर काटने लगे। उस दृष्टिविष सर्प को जातिस्मृति थी। उसने सोचा- 'मेरे द्वारा कोई मारा न जाए, इसलिए वह मुंह से बाहर न निकल कर पूंछ से बाहर निकलने लगा।' जितना जितना भाग बाहर निकलता, वे सपेरे उसे काटते रहे। उन्होंने राजा के समक्ष सारे खंड लाकर रखे।
नागदेव ने राजा को प्रतिबोध दिया और वरदान देते हुए कहा- 'तुम्हारे पुत्र होगा।' वह क्षपकसर्प मरकर रानी के गर्भ से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम नागदत्त रखा गया। जब वह पुत्र उत्पन्न हुआ तब एक दिन मुनि को देख उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह प्रवजित हो गया। उसे भूख बहुत लगती थी। उसने अभिग्रह धारण कर लिया- 'मुझे कुपित नहीं होना है।' वह पर्युषित (बासी) भोजन प्राप्त करने के लिए प्रात:काल घूमता था। उस आचार्य के गच्छ में चार तपस्वी संत थे-एकमासिक, दोमासिक, तीनमासिक और चारमासिक। एक बार रात्रि में उसे वंदना करने के लिए देव आया। वह इन चारों तपस्वियों को लांघकर उस क्षुल्लक मुनि को वंदना करने लगा। देवता जब जाने लगा तब तपस्वी ने उसका हाथ पकड़ कर कहा- 'हे कटपूतने ! इस त्रिकालभोजी मुनि को तम वंदना करते हो। हम महातपस्वियों को वंदना नहीं करते।' उसने कहा- 'मैं भावक्षपक को वंदना करता हूं, द्रव्य क्षपक को नहीं। यह कहकर देवता चला गया।'
दूसरे दिन वह क्षपक बासी भोजन लेने गया। भोजन लेकर उपाश्रय में आकर अन्य साधुओं को निमंत्रित किया। एक तपस्वी ने उसके पात्र में थूक दिया। वह क्षपक बोला- 'क्षमा करें, मैं आपके थूकने के लिए श्लेष्म-पात्र नहीं ला सका।' इसी प्रकार शेष तीनों तपस्वियों ने भी उस पात्र में थूक दिया। वह क्षपक अपना लाया हुआ श्लेष्मयुक्त भोजन करने लगा। उन तपस्वियों ने कहा- 'तुम कैसे साधु हो जो प्रभात बेला में ही खाने लगे।' इस बात को सुनकर क्षपक निर्वेद को प्राप्त हुआ। शुभ अध्यवसायों से उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। निकटस्थ देवों ने कैवल्य-महोत्सव किया और उन क्षपकों से कहा- 'यह भावक्षपक है। तुम लोग प्रतिदिन रोष करते हो अतः द्रव्य क्षपक हो। यह सुनकर पश्चात्ताप और शुभ अध्यवसाय से उन्हें भी कैवल्य उत्पन्न हो गया। पांचों सिद्ध हो गए। नागदत्त मुनि ने प्रतिकूल परिस्थिति में समभाव रखा, यह उनकी पारिणामिकी बुद्धि थी।
१. टिप्पण में-मटी में सर्प को देखकर उसे जातिस्मृति ज्ञान हुआ। २. आवनि ५८८/२३, आवचू. १ पृ. ५६१, ५६२, हाटी. १ पृ. २८८, मटी. प. ५३०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org