Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 566
________________ आवश्यक नियुक्ति ५०५ गई। वह उस नगर में पहुंची, जहां का राजा नि:संतान था। वह मर गया। दासी उसी बालक के साथ गांव के बाहर बैठ गयी। नगर के मंत्रियों ने अश्व को अभिषिक्त करके छोड़ा। उस बालक के पास आकर वह अश्व हिनहिनाया। बालक की परीक्षा की गई। वह राजा बन गया। काष्ठ श्रेष्ठी परदेश से घर लौटा। उसने अपने घर को खंडहर-सा देखा। उसने व्रजा से पूछा पर वह मौन रही। तोते को पंजरमुक्त कर उसने घर का हालचाल पूछा। भय के कारण वह कुछ बोल नहीं सका। श्रेष्ठी ने आश्वस्त किया तब तोते ने ब्राह्मण के साथ वज्रा के संबंध की सारी कथा सुनाई। सेठ ने सारी बात जान ली। उसने सोचा, संसार का व्यवहार विचित्र है। मैंने इस वज्रा के लिए इतने कष्ट सहन किए लेकिन इसने इस प्रकार नीचता की है। वह विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। वज्रा और ब्राह्मण-दोनों वहां से चलकर उसी नगर में पहुंचे, जहां पर वह बालक राजा बना था। मुनि के रूप में काष्ठ श्रेष्ठी भी विहार करते-करते उसी नगर में पहुंचे। वज्रा ने उन्हें पहचान लिया और छलपूर्वक भिक्षा के साथ स्वर्ण भी दे दिया। फिर उसने शोर मचाया कि यह मुनि मेरा सोना लेकर जा रहा है। आरक्षकों ने मुनि को पकड़ कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने मुनि को शूली की सजा सुनाई। उस धायमाता दासी को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने राजा को वस्तुस्थिति बताते हुए कहा- 'ये आपके पिता हैं।' राजा ने वज्रा और ब्राह्मण को देश से निर्वासित करने का आदेश दे दिया। राजा ने पिता को भोग के लिए निमंत्रित किया लेकिन मुनि ने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने राजा को श्रावक बना दिया। वर्षावास पूर्ण हो गया। मुनि वहां से विहार कर गए। मुनि का अपयश कैसे हो, यह सोचकर उस ब्राह्मण ने एक वेश्या को नियुक्त किया। उसने कुलटा का रूप धारण किया। वह गर्भवती थी। उसने विहार कर रहे मुनि को पकड़कर यह बात कही कि यह गर्भ तुम्हारा है, अब कहां जा रहे हो? प्रवचन (जैन शासन) की अवहेलना न हो इसलिए मुनि ने लोगों के समक्ष कहा-'यदि यह गर्भ मेरा हो तो वह योनि से बाहर निकले और यदि यह मेरा न हो तो इसके पेट को फाड़कर निकले।' इतना कहते ही उस स्त्री का पेट फट गया। वह मर गई। प्रवचन और मुनि की बहुत अधिक प्रभावना हुई। १९६. कुमार एक राजकुमार को लड्डु खाने का बहुत शौक था। एक बार वह मोदक के भंडार में चला गया। वहां अपनी स्त्रियों के साथ उसने जी भरकर लड्डु खाए। अत्यधिक लड्डु खाने से उसको अजीर्ण रोग हो गया तथा अपान वायु भी दूषित हो गयी। राजकुमार ने चिंतन किया- 'अहो! यह शरीर कैसा अशुचिमय है। इस प्रकार के सुगंधित और मनोहर धान्य के कण भी शरीर के सम्पर्क से दुर्गन्धयुक्त हो गए। अशुचिमय इस शरीर को धिक्कार है। शरीर के प्रति होने वाले इस मोह को धिक्कार है।'२ । १९७. देवी पुष्पभद्र नगर में पुष्पसेन राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम पुष्पवती था। उसके दो १. आवनि. ५८८/२२, आवचू. १ पृ. ५५८, ५५९, हाटी. १ पृ. २८६, मटी. प. ५२८। २. आवनि. ५८८/२२, आवचू. १ पृ. ५५९, हाटी. १ पृ. २८६, मटी. प. ५२८, ५२९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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