Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
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बोला- 'मैं अच्छे सरजस्कों को ले आऊंगा पर कितने लाऊं ?' जिनदत्त बोला- चार। वह चार शब्दवेधी दिक्पालों को लेकर आया। मंडल करके दिशापालों से कहा- 'जब तुम्हें लोमड़ी का शब्द सुनाई दे तब उसे शीघ्र ही बाणों से बींध देना और सरजस्कों से कहा कि 'हुं फट् ' इतना कहने पर लोमड़ी की आवाज करना । हारप्रभा लड़की से कहा कि तुम यथावत् ही रहना । वैसा करने पर सरजस्क बींधे गए पर पुत्री ठीक नहीं हुई। धन सार्थवाह उद्विग्न हो गया। विप्र बोला- 'मैंने पहले ही कह दिया था कि यदि अब्रह्मचारी होंगे तो काम सिद्ध नहीं होगा ।' धन ने कहा- 'अब क्या उपाय है ?' विप्र ने ब्रह्मचारियों का स्वरूप बताया तथा गुप्तियों की साधना बताई। धन ने जल शौचवादियों में ऐसे ब्रह्मचारी खोज की पर कोई ब्रह्मचारी नहीं मिला। वह धन श्रेष्ठी को साधुओं के पास ले गया। साधुओं ने ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों की बात बताते हुए कहा - 'जो इनमें पवित्र मन से निवास करता है, वह ब्रह्मचारी होता है। जो मन का निरोध करता है, वह ब्रह्मचारी होता है।' धन सार्थवाह ने मुनियों को कहा कि मुझे ऐसे ही ब्रह्मचारियों से प्रयोजन है । साधुओं ने कहा कि ऐसे प्रयोजन में सम्मिलित होना हमें नहीं कल्पता । निराश होकर धन विप्र के पास आकर बोला- 'ब्रह्मचारी तो मुझे मिल गए किन्तु वह यहां आना नहीं चाहते। ' विप्र बोला-'ऐसे ही लोकव्यापार से मुक्त मुनि साधु कहलाते हैं। उनकी पूजा-अर्चना करने से भी कार्य की सिद्धि होती है। उनके नाम लिखने पर क्षुद्र व्यन्तरदेव भी आक्रमण नहीं करते।' धन श्रेष्ठी ने साधुओं की पूजा की। मंडल बनाकर साधुओं के नाम लिखे । दिक्पालों की स्थापना की। सियाल नहीं बोले । पुत्री स्वस्थ हो गई। धन सार्थवाह साधुओं की सेवा करने लगा और श्रावक बन गया । विप्र वेषधारी जिनदत्त को धर्मोपकारी मानकर धन ने उसको अपनी बेटी हारप्रभा तथा मोतियों की माला दे दी । त्वरा न करने के कारण जिनदत्त को वह उपलब्धि हुई।
सिद्धपुत्रों ने दूसरी कथा सुनाते हुए कहा - ' एक कार्पटिक ने जंगल में एक तोते की आराधना की।' वह मोर बन गया और प्रतिदिन नर्तन करते समय स्वर्ण की एक-एक पिच्छ देने लगा। कार्पटिक का लोभ बढ़ा। उसने सोचा- 'मैं कितने दिन प्रतीक्षा करूंगा।' उसने उस मयूर की सारी पिच्छे उखाड़ दीं। वह पुनः मयूर से कौआ हो गया। वह उससे कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका अतः त्वरा कार्य-विनाशिका होती है। ये कथाएं सुनकर बसंतपुर का वह धनिकपुत्र संभला और उसने सोचा कि मैं भी अपने घर जाऊं और त्वरा न कर उस देवी को पाने का उपाय सोचूं । वह अपने देश में गया। वहां अनेक दंडरक्षक चांडाल विद्यासिद्ध थे। वह उनके पास गया। उन्होंने पूछा - 'हमारे से तुम्हें क्या प्रयोजन है ?' उसने कहा- 'देवी से मुझे मिलाओ ।' चांडालों ने सोचा- 'देवी पर कोई झूठा कलंक आने पर राजा उसे छोड़ देगा । ' उन्होंने विद्याबल से मारी की विकुर्वणा की । मारी के प्रभाव से लोग मरने लगे। राजा ने चांडालों को आदेश दिया'मारी पर नियंत्रण करो ।' वे बोले - 'हम विद्याबल से गवेषणा करेंगे, उसके बाद आपको कुछ निवेदन करेंगे।' चांडालों ने चौथी रात्रि में देवी के वासगृह में मनुष्य के हाथ-पैरों की विकुर्वणा की । देवी का मुंह रक्त से खरंटित कर दिया। वे राजा के पास जाकर बोले- 'मारी यहीं से उत्पन्न हुई है, आप अपने घर में खोजें ।' राजा ने रानी के वासगृह में जाकर देखा। वहां मनुष्यों के हाथ-पैर और रानी का मुंह रक्त से लिप्त देखकर राजा ने चांडालों से कहा- 'जाओ, विधिपूर्वक देवी को मार डालो । मध्यरात्रि में जहां कोई पुरुष न देखता हो, वहां इसका वध कर देना।' यह स्वीकार कर चाण्डाल रात्रि में देवी को अपने घर ले गए। वह
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