Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 537
________________ परि. ३ : कथाएं ४७६ देखा कि चक्र का निर्माण हो गया है। उसने तत्काल जाकर राजा से कहा- 'कोक्कास यहां आया है, जिसकी शक्ति से काकवर्ण राजा ने सभी राजाओं को वश में कर लिया है।' राजा ने कोक्कास का निग्रह कर लिया। पीटे जाने पर उसने राजा और रानी की बात कही। राजा ने सबको बंदी बना डाला और उनका भोजन बंद कर दिया। नागरिकों ने अपयश से भयभीत होकर 'काकपिंड' का प्रवर्तन किया। राजा ने कोक्कास से कहा- 'मेरे सौ पुत्रों के लिए साप्तभूमिक प्रासाद का निर्माण करो। मेरा कक्ष मध्य में रखना । मैं सभी पुत्रों को राजकुल में ले आऊंगा।' कोक्कास ने वैसा ही प्रासाद बना दिया और गुप्तरूप से काकवर्ण राजा के पुत्रों को यंत्रमय पक्षी के साथ संदेश भेजा कि यहां ससैन्य आओ, जिससे कि मैं इस विरोधी राजा को पुत्रों सहित मार डालूं । तब तुम मुझे और माता-पिता को मुक्त करा सकोगे। तुम अमुक दिन यहां उपस्थित हो जाना। कलिंग देश का राजा अपने पुत्रों के साथ उस नवनिर्मित प्रासाद में आ गया। कोक्कास एक कीलिका लगाई और वह पूरा प्रासाद संपुटित गया। राजा अपने पुत्रों के साथ मर गया। काकवर्ण के पुत्रों ने नगर पर आधिपत्य कर लिया । पुत्रों ने माता-पिता और कोक्कास को मुक्त करवा लिया। कुछ मानते हैं कि कोक्कास ने निर्विण्ण होकर आत्महत्या कर ली। १३६. विद्यासिद्ध (खपुट आचार्य ) आचार्य खपुट विद्यासिद्ध आचार्य थे। उनके साथ एक बाल मुनि था, जो उनका भानजा था। उसने आचार्य से सुन-सुनकर अनेक विद्याएं ग्रहण कर लीं। एक बार विद्याचक्रवर्ती खपुट आचार्य अपने भानजे मुनि को भृगुकच्छ में साधुओं के पास छोड़कर स्वयं गुडशस्त्र नगर में गए। वहां एक परिव्राजक रहता था। वह मुनियों से वाद में पराजित हो चुका था इसलिए उसके मन में अधृति हो गई थी। वह मरकर उसी गुडशस्त्र नगर में 'बृहत्कर' नामक व्यन्तर देव बना । वह वहां सभी साधुओं को पीड़ित करने लगा इसलिए आचार्य खपुट वहां गए थे। आचार्य ने वहां जाकर उस व्यन्तर देव की प्रतिमा के कानों में दो जूते लटका दिए । पुजारी ने जब यह देखा तो लोगों को एकत्रित कर वहां आया। जैसे-जैसे जूते निकाले जाते वैसे-वैसे पुनः लग जाते। राजा तक बात पहुंची। राजा ने आकर देखा। राजपुरुषों ने आचार्य पर लकड़ियों से प्रहार किया परन्तु वे प्रहार अन्तःपुर की रानियों पर लगने लगे। राजा ने घबराकर आचार्य को मुक्त कर दिया । तत्पश्चात् बृहत्कर तथा अन्य व्यन्तर लोगों को पीड़ित करते हुए घूमने लगे। लोगों ने उनके पैरों में गिरकर कहा— 'हमें छोड़ दो।' उस मंदिर में पाषाणमयी दो बृहदाकार द्रोणियां थीं। वे दोनों द्रोणियां व्यन्तर के साथ खट्कार करती हुई पीछे घूमने लगीं। लोगों ने आचार्य से कहा । आचार्य ने व्यन्तर देवों को मुक्त कर दिया। वे दोनों द्रोणियां भी पहले ही लाकर छोड़ दीं। सोचा कि भविष्य में मेरे सदृश कोई होगा तो वह ले आएगा। आचार्य खपुट का भानजा भृगुकच्छ में आहार की गृद्धि के वशीभूत होकर बौद्ध भिक्षु बन गया। वह अपने विद्याबल से उपासकों के घरों से खाद्य से भरे पात्र आकाशमार्ग से मंगाने लगा। इस चमत्कार से अनेक लोग उसके उपासक बन गए। संघ ने एकत्रित होकर आचार्य खपुट के पास विज्ञप्ति भेजी । आचार्य आए तब लोगों ने कहा- ' ऐसी अक्रिया चल रही है। वस्त्र से आच्छादित पात्र आकाशमार्ग से आने लगे हैं।' आचार्य ने यह बात जानी। उन्होंने अपने विद्याबल से आकाशमार्ग में पत्थर स्थापित कर दिए। आने १. आवनि. ५८८/३, आवचू. १ पृ. ५४०, ५४१, हाटी. १ पृ. २७३, २७४, मटी. प. ५१२, ५१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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