Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 543
________________ ४८२ परि. ३ : कथाएं १४८. वनषण्ड राजा ने ग्रामवासियों को आदेश दिया कि ग्राम की पूर्व दिशा में जो वनषण्ड है, उसे पश्चिम दिशा में कर दो। ग्रामवासी चिंतातुर होकर रोहक के पास गए। रोहक ने समाधान दिया कि ग्रामवासी उस वनषण्ड की पूर्व दिशा में जाकर अपने मकान बना लें। रोहक के कथनानुसार ग्रामवासी वनषण्ड के पूर्वभाग में चले गए। राजपुरुषों ने राजा को निवेदन किया कि वनषण्ड पश्चिम दिशा में हो गया है। राजा ने आश्चर्य से पूछा-'कैसे?' राजपुरुषों ने कहा- 'ग्रामवासी वनषण्ड की पूर्वदिशा में बस गए हैं।' १४९. खीर एक बार राजा ने आदेश दिया कि अग्नि जलाए बिना खीर पकाओ। ग्रामवासियों ने रोहक से समाधान प्राप्त किया। उसने कहा- 'चावलों को पानी में भिगोओ। फिर सूर्य की किरणों में तपे उपले एवं पलाल की उष्मा से खीर पकाओ। इस विधि से खीर तैयार हो गयी।' यह देखकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। १५०. बकरी सारी परीक्षाएं करने के पश्चात् राजा ने गांववासियों को कहलवाया- 'तुम उस बुद्धिमान् बालक को साथ लेकर यहां आओ पर ध्यान रहे वह न शुक्लपक्ष में आए न कृष्णपक्ष में । न रात में आए न दिन में। न धूप में आए न छाया में। न छत्र धारण कर आए और न बिना छत्र आए। न आकाशमार्ग से आए और न पैदल चलकर आए। न पंथ से आए और न उत्पथ से आए। न स्नान करके आए और न बिना स्नान के आए।' गांव वालों ने रोहक को सारी बात कही। राजा की आज्ञा पाकर रोहक ने गले तक स्नान किया। वह अमावस्या और प्रतिपदा के संधि समय अर्थात् संध्या के समय में चालनी को सिर पर रखकर मेंढे पर बैठकर गाड़ी के पहिए के मध्यवर्ती मार्ग से गया। राजा, गुरु और देवता के दर्शन खाली हाथ नहीं करने चाहिए, इस जनश्रुति के आधार पर उसने एक मिट्टी का ढेला राजा को भेंट किया। राजा ने पूछा- 'यह क्या है?' रोहक बोला-'आप पृथ्वीपति हैं अतः उपहार स्वरूप यह पृथ्वी लाया हूं।' उसके वचनों और बुद्धिचातुर्य को देखकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। राजा ने ग्रामवासियों को वापिस भेज दिया और रोहक को अपने पास रख लिया। १५१. मींगणियां राजा ने रोहक को अपने पास सुलाया। एक प्रहर रात बीतने पर राजा ने पूछा- 'रोहक! तुम सो रहे हो अथवा जाग रहे हो?' रोहक बोला- 'स्वामिन् ! मैं जाग रहा हूं।' १. आवनि. ५८८/१३, आवचू. १ पृ. ५४५, हाटी. १ पृ. २७८, मटी. प. ५१८ । २. आवनि. ५८८/१३, आवचू. १ पृ. ५४५, हाटी. १ पृ. २७८, मटी. प. ५१८ । ३. आवनि. ५८८/१३, आवचू. १ पृ. ५४५, ५४६, हाटी. १ पृ. २७८, मटी. प. ५१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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