Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 518
________________ आवश्यक नियुक्ति ४५७ झरोखे में बैठा था । उसकी दृष्टि मार्ग पर चलते किसी एक द्रमक - गरीब पर पड़ी। रानी ने भी उस द्रमक को देखा। दोनों के मन में उसके प्रति अनुकम्पा उत्पन्न हो गई। रानी ने कहा- 'राजा नदी के समान होते हैं, वे भरे हुए को भरते हैं।' राजा के आदेश से उस गरीब को आभूषण और वस्त्रों से अलंकृत कर राजा समक्ष उपस्थित किया गया। उसे खुजली की बीमारी थी। राजा ने उसे सेवक के रूप में रख लिया । कुछ काल बीता। राजा ने उसे राज्य दे दिया। एक दिन उसने देखा कि दंडनायक, भट और भोजिक मंदिर में पूजा कर रहे हैं। उसने मन ही मन सोचा - 'मैं किसकी पूजा करूं?' सोच-विचार कर उसने राजा का मंदिर बनवाया और राजा और रानी की प्रतिमा बनवाई। मंदिर में प्रतिमाओं की स्थापना करते समय उसने राजा-रानी को आमंत्रित किया। उन्होंने पूछा- 'क्या बात है ? उसने सारी बात बताई । राजा ने प्रसन्न होकर उसका विशेष सम्मान किया। वह अब तीनों संध्याओं में प्रतिमा की अर्चा-पूजा करने लगा। वह राजा की सेवा करता रहा। राजा ने संतुष्ट होकर उसके प्रवेश-निर्गमन के लिए सभी स्थान आज्ञापित कर दिए। एक बार राजा दंडयात्रा के लिए प्रस्थित हुआ। यात्रा पर जाते समय वह उस द्रमक राजा को संपूर्ण अन्तःपुर का दायित्व देकर चला गया। काफी समय बीत गया । अन्त: पुर की रानियां निरोध को सहन न कर सकने के कारण उस द्रमक राजा की सेवा करने लगीं। वह उनके साथ सहवास करना नहीं चाहता था। उनसे भोजन - पानी प्राप्त करना भी नहीं चाहता था। धीरे-धीरे उन्होंने उसे पथच्युत कर डाला। राजा यात्रा से आ गया। शिकायत करने पर राजा ने उसे देश से निकाल दिया। १२०. अटवी में मार्गदर्शक बसंतपुर नगर में धन नामक सार्थवाह रहता था। उसने देशान्तर जाते समय अपने प्रस्थान की घोषणा करवाई । उस घोषणा को सुनकर तटिक, कार्पटिक आदि एकत्रित हुए और सार्थ के साथ जाने की इच्छा प्रगट की। धन सार्थवाह ने उनको मार्ग के गुण बतलाते हुए कहा- 'एक मार्ग ऋजु है और दूसरा वक्र । वक्र मार्ग से सुखपूर्वक जाया जा सकता है पर उससे अपने ईप्सित नगर में प्रलंब काल में पहुंचा जाता है। अंत में वह मार्ग भी ऋजु मार्ग में ही मिल जाता है। जो ऋजु मार्ग है, उससे नगर में शीघ्र पहुंचा जा सकता है, परंतु उसमें गमन करना कष्टदायी है। वह अत्यन्त विषम और संकड़ा है। उसके प्रवेश पर ही दो महा भयंकर व्याघ्र और सिंह रहते हैं । वे मार्ग के दोनों छोर पर पड़े रहते हैं । उनको छोड़े बिना मार्ग को पार करना संभव नहीं है। मार्ग के अवसान तक वे पीछा करते हैं। वहां मार्गगत अनेक मनोहर वृक्ष हैं। उनकी छाया में विश्राम नहीं करना चाहिए क्योंकि उनकी छाया मारणांतिक है। वृक्ष के जो पत्ते नीचे गिरे हुए हों, वहीं कुछ क्षण विश्राम किया जा सकता है। वहां मार्गान्तर में स्थित अनेक रूपवान् पुरुष मधुर वाणी से पथिकों को बुलाते हैं। उनके वचन कभी नहीं सुनने चाहिए। अपने सार्थ वालों का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि एकाकी को निश्चित ही भय होता है। दुरन्त और घोर दावाग्नि आने पर अप्रमत्त होकर उसको बुझाने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि उसे बुझाया न जाए तो वह जलती ही रहती है। जो दुर्ग और ऊंचे पर्वत हैं, उन्हें सावधानीपूर्वक पार करना । उसे पार न करने पर निश्चित ही मृत्यु है। उसके बाद १. आवचू. १ पृ. ५०३, हाटी. १ पृ. २५२, मटी. प. ४८६, ४८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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