Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भरा। इस प्रकार क्रोध के वशीभूत होकर राम ने क्षत्रियों का वध किया ।
१२४. सुभूम
वह सुभूम वहां बढ़ रहा था। वह विद्याधर से परिगृहीत था । इधर राम ने नैमित्तिक से पूछा- 'मेरा विनाश किससे होगा ?' नैमित्तिक बोला, जो इस सिंहासन पर बैठेगा और इन जबड़ों की खीर खाएगा, उससे ही तुम्हें भय है ।' राम ने अलग भोजन बनवाया। उसे सिंहासन पर रखा। जबड़े से भरा थाल उसके आगे रखा गया। इधर मेघनाद नामक विद्याधर ने अपनी पुत्री पद्मश्री के विषय में नैमित्तिक से पूछा - ' इसका विवाह किसके साथ करें ?' नैमित्तिक ने कहा- 'सुभूम को यह कन्या दी जाए, वह चक्रवर्ती बनेगा ।' विष आदि से परीक्षा करने पर उसे विश्वास हो गया कि यह चक्रवर्ती बनेगा । मेघनाद सुभूम के पीछे-पीछे रहने लगा । काल बीतता रहा ।
एक बार सुभूम ने अपनी माता से पूछा- 'क्या लोक इतना ही है या और भी है ?' उसने राम की सारी बात बताई और कहा - 'तुम मत जाओ, अन्यथा मारे जाओगे।' सुभूम बोला- मृत्यु भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी। सुभूम मान के वशीभूत होकर हस्तिनापुर की उस सभा में गया और सिंहासन पर बैठा। सारे देव पलायन कर गए । वे दंष्ट्राएं खीर बन गईं। ब्राह्मण उसको मारने लगे। विद्याधर ने वे प्रहार ब्राह्मणों पर गिराने प्रारंभ किए। तब सुभूम विश्वस्त होकर खीर खाने लगा । राम को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह सन्नद्ध होकर वहां आया और अपने परशु को फेंका लेकिन वह बुझ गया। सुभूम उसी थाल को लेकर उठा, वह चक्ररत्न हो गया। उसने उससे राम का शिरच्छेद कर डाला। फिर सुभूम ने अहंकार वश इक्कीस बार पृथ्वी को ब्राह्मण रहित कर डाला। उसने ब्राह्मणियों के गर्भों को फाड़ कर नष्ट कर डाला । २ १२५. पांडु आर्या
परि. ३ : कथाएं
आर्या पांडु ने भक्तप्रत्याख्यान कर अनशन स्वीकार किया। उसने अपनी ख्याति और पूजा के लिए तीन बार लोगों को एकत्रित किया। आचार्य को यह ज्ञात हुआ । उन्होंने उसे आलोचना करने के लिए कहा । उसने आलोचना की। तीसरी बार उसने आलोचना नहीं की। गुरु द्वारा पूछने पर उसने कहा- ' - 'पूर्वाभ्यास के कारण लोग आते हैं।' वह मरकर मायाशल्य दोष के कारण किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न हुई। १२६. सर्वांगसुंदरी'
बसन्तपुर नगर में जितशत्रु राजा था। वहां धनपति और धनावह नामक दो भाई श्रेष्ठी थे। उनकी बहिन का नाम धनश्री था, जो बालविधवा थी। वह धर्मध्यान में लीन रहती थी। एक बार मासकल्प की इच्छा से आचार्य धर्मघोष वहां आए । धनश्री उनके पास प्रतिबुद्ध हुई। दोनों भाई भी बहिन के स्नेहवश आचार्य के पास प्रतिबुद्ध हुए । धनश्री प्रव्रजित होना चाहती थी पर भाई उसको सांसारिक स्नेह के कारण दीक्षा की अनुमति नहीं दे रहे थे ।
१. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५१८-५२१, हाटी. १ पृ. २६१, २६२, मटी. प. ५००, ५०१ ।
२. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५२१, ५२२, हाटी. १ पृ. २६२, मटी. प. ५०१ ।
३. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५२२, हाटी. १ पृ. २६२, मटी. प. ५०२ ।
४. चूर्णि में यह शुक की कथा के बाद है ।
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