Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 529
________________ ४६८ परि. ३ : कथाएं माहेश्वर और श्रावक जिनदास-इन दोनों के कुल प्रव्रजित हो गए। उस शुक ने भक्तप्रत्याख्यान किया और सहस्रार देवलोक में उत्पन्न हुआ। १२८. लोभ विषयक लुब्धनन्द का उदाहरण पाटलिपुत्र नगर में लुब्धनन्द नामक वणिक् रहता था। वहां जिनदत्त श्रावक था। वहां का राजा जितशत्रु एक तालाब का उत्खनन करवा रहा था। तालाब खोदते समय कर्मकरों ने कुश्य देखे। हमारे मदिरापान के लिए इनका मूल्य पर्याप्त होगा, यह सोचकर वे कुश्य-लोहे की कीलें लेकर बाजार में श्रावक के पास गए। उसने उन्हें लेने से इन्कार कर दिया। तब वे उन्हें नंद के पास ले गए। नन्द ने उन्हें लेकर कहा-'और भी ले आना, मैं ही उन्हें खरीद लूंगा।' अब वह प्रतिदिन कीलें लेने लगा। एक बार मित्रों के अत्यधिक आमंत्रण पर वह बलात् उनके साथ बाहर चला गया। जाते-जाते उसने पुत्रों से कहा- 'लोहकीलिकाएं आएं तो उन्हें ले लेना।' वह चला गया। पुत्रों ने लोहे की कीलें लाने पर उन्हें नहीं खरीदा। वे कर्मकर निराश और आक्रुष्ट होकर आपूपिकशाला में गए। 'यह न्यून मूल्य दे रहा है' यह सोचकर उन्होंने अपने कुश्य एकान्त में रख दिए। कुश्य से लोहे का किट्ट भूमि पर गिरा। राजपुरुषों ने यह देखा। उन्होंने कर्मकरों को पकड़ा और राजा के पास ले गए। उन्होंने राजा के समक्ष यथार्थ बात कह दी। ___ इतने में नन्द अपने घर गया और पुत्रों से पूछा- 'कुश्य लिए या नहीं?' पुत्र बोले- क्या हम ग्रहग्रस्त हैं, जो कुश्य लें।' उसने सोचा इतने लाभ से मैं वंचित रह गया। लोभ के कारण उसने कुश्य से दोनों पुत्रों के एक-एक पैर काट डाले। स्वजन विलाप करने लगे। इधर राजपुरुष उस श्रावक तथा नंद को लेकर राजकुल में गए। उनसे यथार्थ बात पूछी गयी। श्रावक बोला-'मेरे इच्छापरिमाण व्रत है अत: अधिक न रखने का संकल्प है इसके अतिरिक्त धोखा देकर कपटपूर्वक वस्तु लेने का भी प्रत्याख्यान हैयह सोचकर मैंने ये कुश्य नहीं लिए। राजा ने श्रावक को ससत्कार मुक्त कर दिया। नंद को शूली पर चढ़ा दिया और उसके कुल का विनाश कर डाला। श्रावक को श्रीगृह का अधिकारी बना दिया। १२९. श्रोत्रेन्द्रिय के प्रति आसक्ति ____ बसंतपुर नगर में पुष्पशाल नामक गांधर्विक रहता था। वह विरूप था परन्तु उसके स्वर बहुत मीठे थे। गायन से उसने बसंतपुर के लोगों का हृदय आकृष्ट कर लिया था। उस नगर का सार्थवाह दिग्यात्रा के लिए प्रस्थित हुआ। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। उसने किसी प्रयोजन से अपनी दासियों को बाहर भेजा। वे दासियां उस गांधर्विक का गायन सुनने बैठ गईं। उन्हें समय का भान नहीं रहा। वे विलंब से घर पहुंची। भद्रा ने उन्हें उपालंभ दिया। दासियां बोलीं-'स्वामिनी ! रुष्ट मत होओ। आज हमने जो सुना है, वह पशुओं को भी लुब्ध करने वाला था फिर भला कान से सुनने और समझने वालों का तो कहना ही क्या?' भद्रा ने पूछा- 'कैसे?' दासियों ने सारी बात सुनाई। भद्रा ने मन ही मन सोचा- 'मैं उसे कैसे देख पाऊंगी?' ___ एक बार नगर-देवता की यात्रा प्रारंभ हुई। सारा नगर वहां एकत्रित हो गया। भद्रा भी वहां गई। १. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५२२-५२६, हाटी. १ पृ. २६४, २६५ । २. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५२८, ५२९, हाटी. १ पृ. २६५, मटी. प. ५०३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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