Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं
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अपनी आत्मा को 'सत्त्व भावना' से भावित कर रहे थे । इस भावना के पांच चरण होते हैं- पहले इसकी साधना उपाश्रय में, फिर उपाश्रय से बाहर, फिर चौराहों पर, फिर शून्यगृह में और अंत में श्मशान भूमि में होती है। स्थविर मुनिचन्द्र दूसरे चरण की साधना कर रहे थे । गोशालक भगवान् के पास आकर बोला'भंते! भिक्षाचर्या के लिए निकलें ।' सिद्धार्थ ने कहा- 'आज तपस्या है।' तब गोशालक अकेला गया। घूमते हुए उसने पार्वापत्यीय श्रमणों को देखा। उसने पूछा- 'आप कौन हैं ?' उन्होंने कहा – 'हम श्रमणनिर्ग्रन्थ हैं ?' उसने आश्चर्य के साथ कहा- 'अहो ! निर्ग्रन्थ होते हुए भी आपके पास इतना ग्रन्थ (परिग्रह) है। आप कैसे निर्ग्रन्थ हुए ?' उसने अपने आचार्य ( भगवान् महावीर) का वर्णन किया- 'मेरे आचार्य ऐसे महात्मा हैं।' तब उन्होंने कहा- 'जैसे तुम हो, वैसे ही तुम्हारे धर्माचार्य हैं। उन्होंने स्वयं लिंग ग्रहण किया है।' यह सुनकर गोशालक ने कहा- मेरे धमाचार्य की शपथ है। यदि मेरे धर्माचार्य का प्रभाव है तो आपका उपाश्रय जल जाए। उन्होंने कहा-' -'तुम्हारे कहने मात्र से हम नहीं जलेंगे।' गोशालक वहां से भगवान् के पास आकर बोला- 'भंते! मैंने आज सारंभ और सपरिग्रही श्रमणों को देखा है। उसने सारी बात बताई ।' तब सिद्धार्थ ने कहा- 'वे पाश्र्वापत्यीय साधु हैं। वे नहीं जलेंगे।'
रात्रि-वेला में उपाश्रय से बाहर आकर आचार्य मुनिचन्द्र प्रतिमा में स्थित हो गए। उस दिन कूपनक कुंभकार पंक्ति में भक्तपान कर विकाल में मत्त होकर आया। उसने मुनिचन्द्र आचार्य को बाहर खड़े देखा। उसने सोचा- 'यह चोर है।' उसने उन्हें गले से पकड़ा। उनका श्वास रुक गया पर वे ध्यान से विचलित नहीं हुए। उन्हें अवधिज्ञान हुआ और दिवंगत हो गए। उस समय निकटस्थ व्यंतर देवों ने उत्सव और पूजा की। गोशालक बाहर बैठा हुआ यह सब देख रहा था। देव बाहर जा रहे थे और अंदर प्रवेश कर रहे थे। गोशालक ने सोचा कि आचार्य जल गए हैं अतः उसने स्वामी से कहा कि इस प्रत्यनीक का उपाश्रय जल गया। सिद्धार्थ बोला- 'उनका उपाश्रय नहीं जला है। उनके आचार्य को अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया और उनका आयुष्य भी पूर्ण हो गया । वे मरकर देवलोक में गए हैं इसलिए आसपास के व्यंतर देवों ने यह उत्सव किया है।' जब देव पूजा-अर्चना कर चले गए तब वह उस स्थान पर गया तथा गंधोदक और पुष्पों की सुगंध देखकर अत्यधिक हर्षित हुआ । फिर उसने आचार्य मुनिचन्द्र के साथ वाले साधुओं को जगाकर कहा - 'अरे! तुम नहीं जानते ? तुम मुंड ऐसे ही घूम रहे हो । उठो, आचार्य दिवंगत हो गए, यह भी तुम नहीं जानते । क्या सारी रात सोते रहोगे ?' तब उन साधुओं ने सोचा- 'यह पिशाच है, रात में भी घूमता है।' वे भी उसके कहने पर उठे । आचार्य के पास गए। उन्होंने देखा - ' आचार्य दिवंगत हो गए हैं।' दुःख का अनुभव करते हुए उन्होंने सोचा - 'हमें ज्ञात ही नहीं हुआ कि आचार्य कालगत हो गए हैं।' गोशालक उनका तिरस्कार कर चला गया।
वहां से प्रस्थान कर भगवान् चोराक सन्निवेश में गए। वहां के नगररक्षक ने उन्हें गुप्तचर समझकर पकड़ लिया और बांधकर कुए में लटका दिया । उन्होंने पहले गोशालक को बाहर निकाला। लेकिन भगवान् को नहीं निकाला। वहां उत्पल की दो बहिनें सोमा और जयंती नामक दो परिव्राजिकाएं रहती थीं। पहले वे पार्श्व की परंपरा में साध्वियां थीं परन्तु चारित्र की परिपालना न कर सकने के कारण वे परिव्राजिकाएं बन गईं थीं। उन्होंने सुना कि यहां के प्रहरियों ने दो व्यक्तियों को बंदी बना कर कूंए में उतारा है। उन्हें ज्ञात था कि चरम तीर्थंकर प्रव्रजित हो चुके हैं। वे वहां आईं और भगवान् को देखा। उनके कहने
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