Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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राजा ने नटों को कुछ भी दान नहीं दिया। उसके न देने पर दूसरों ने भी अपने हाथ खींच लिए। सारी जनता नटों के करतब देखकर साधुवाद, साधुवाद की आवाज करने लगी। राजा ने नट से कहा- 'ऊपर चढ़ो और पुनः करतब दिखाओ।' वहां वंश के अग्रभाग पर तिरछा काष्ठ रखा गया। उसमें दो कीलिकाएं थीं । नट पादुकाएं पहनकर हाथ में असिखेटक लेकर ऊपर चढ़ा। उन कीलिकाओं का पादुका की नलिकाओं से प्रवेश हो सकता था। वे पादुकाएं सात आगे और पांच पीछे आविद्ध थीं । राजा ने सोचा- 'यदि यह वहां से स्खलित होकर नीचे गिर पड़ेगा तो शरीर के सैकड़ों खंड हो जाएंगे।' इलापुत्र ने वह करतब भी सफलतापूर्वक कर डाला। राजा अब भी उसी नटपुत्री की ओर देख रहा था। लोगों ने जय-जयकार किया फिर भी राजा की आंखें नहीं खुलीं । राजा ने नटमंडली को कुछ नहीं दिया और न ही ध्यान से नाटक देखा। राजा तो बस यही सोच रहा था कि यदि यह नट इलापुत्र मर जाए तो मैं इस नटपुत्री के साथ विवाह कर लूं । राजा को पूछने पर वह कहने लगा- 'मैंने करतब देखा ही नहीं, पुनः करो।' इलापुत्र ने पुनः किया। राजा ने फिर भी नहीं देखा। तीसरी बार करने पर भी नहीं देखा। चौथी बार इलापुत्र से कहा - 'पुनः करो।' सारी जनता विरक्त हो गई । इलापुत्र चौथी बार चढ़ा और बांस के अग्रभाग पर स्थिर होकर सोचने लगा- 'भोगों को धिक्कार है । यह राजा इतनी रानियों से भी तृप्त नहीं हुआ और इस नटिनी को अपनी बनाना चाहता है। इस नटपुत्री को प्राप्त करने के लिए मुझे मारना चाहता है।' यह सोचते-सोचते उसकी दृष्टि एक श्रेष्ठिगृह में सर्वालंकार भूषित स्त्रियों की ओर गई, जो एक मुनि को भिक्षा देने के लिए प्रवृत्त थीं । वे स्त्रियां सर्वांगसुंदर थीं परन्तु मुनि अत्यंत विरक्तभाव से नीचे दृष्टि किए हुए थे। इलापुत्र ने मन ही मन सोचा - 'अहो !
साधु धन्य हैं, जो विषयों से निस्पृह हैं। मैं श्रेष्ठीपुत्र हूं, अपने परिजनों को छोड़कर यहां आया हूं। यहां भी मेरी ऐसी स्थिति है ।' उसके परिणाम श्रेष्ठ होते गए और उसी अवस्था में उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो
गई।
परि. ३ :
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कथाएं
उस नट- पुत्री को भी वैराग्य हुआ । अग्रमहिषी और राजा के मन में भी विशुद्ध भाव उमड़े और सभी कैवल्य को प्राप्त कर सिद्ध हो गए।"
११२. दमदन्त अनगार
हस्तिशीर्ष नगर में दमदन्त नामक राजा राज्य करता था । हस्तिनापुर नगर में पांच पांडव रहते थे। दोनों में परस्पर वैर था। एक बार महाराज दमदंत राजगृह में जरासंध के पास गए हुए थे। पांडवों ने उसके राज्य को लूट लिया और उसे जला डाला। जब दमदंत वापिस आया तो उसने हस्तिनापुर पर चढ़ाई कर दी। दमदंत के भय से कोई नगर से बाहर नहीं आया तब दमदंत ने कहा- ' शृगालों की भांति शून्य स्थानों में जहां घूमना हो, वहां इच्छानुसार घूमो। जब मैं जरासंध के पास गया था तब तुमने मेरे देश को लूटा था। अब बाहर निकलो ।' जब हस्तिनापुर से कोई बाहर नहीं निकला तब महाराज दमदंत अपने देश चले गए । कालान्तर में वे कामभोगों से विरक्त हुए और प्रव्रजित हो गए ।
एक बार एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार कर वे विहार करते हुए हस्तिनापुर आए और गांव के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। अनुयात्रा के लिए निर्गत युधिष्ठिर ने आकर वंदना की। शेष चारों पांडवों ने १. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४८४, ४८५, हाटी. १ पृ. २४०, मटी. प. ४६८, ४६९ ।
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