Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति से भाजन फूट गया। फूटे बर्तन के खप्पर में जो खीर रह गई, उसे ग्वालों ने खाया। गोशालक को कुछ नहीं मिला। तब गोशालक को नियति पर दृढ विश्वास हो गया।
वहां से भगवान् ब्राह्मणग्राम में गए। वहां नंद और उपनंद-दो भाई रहते थे। गांव दो भागों में विभक्त था। एक नंद के अधीन था और दूसरा उपनंद के। भगवान् नंद के विभाग में नंद के घर पारणक के लिए पहुंचे। नंद ने बासी अन्न से भगवान् को प्रतिलाभित किया। गोशालक उपनंद के घर गया और भिक्षां देने के लिए कहा। उस समय भोजन की वेला नहीं थी तब उसने ठंडा ओदन देना चाहा। गोशालक ने लेने से इन्कार कर दिया। तब उपनंद ने दासी से कहा- 'यह ठंडा ओदन इस पर फेंक दो।' दासी ने वैसा ही किया। तब गोशालक ने रोष में आकर कहा- 'यदि मेरे धर्माचार्य का तप अथवा तेज हो तो इसका घर जलकर राख हो जाए।' तब वहां सन्निहित व्यंतर देव ने सोचा कि भगवान् का प्रभाव झूठा न हो जाए, इसलिए उसने घर जला डाला। भगवान् चंपा नगरी में गए और वर्षावास की स्थापना की। वहां द्विमासिक तपस्या तथा अन्य विचित्र तपःकर्म स्वीकार किए और खड़े-खड़े प्रतिमा में स्थित हो गए। साथ ही कायोत्सर्ग, उत्कटुक आसन आदि में लीन हो गए। यह भगवान् का तीसरा वर्षावास था।
चंपा नगरी में दसरा द्विमासिक तपस्या का पारणक बाह्य परिसर में करके भगवान् गोशालक के साथ कालाय सन्निवेश की ओर प्रस्थित हुए। भगवान् वहां जाकर शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित हो गए। गोशालक भी उस शून्यगृह के द्वारपथ पर बैठ गया। ग्राम प्रधान का पुत्र सिंह गोष्ठीदासी विद्युन्मती के साथ उस शून्यगृह में आया। उसने वहां आकर कहा- 'यहां शून्यगृह में कोई श्रमण, ब्राह्मण अथवा कोई पथिक ठहरा हुआ हो तो बताए, हम अन्यत्र चले जाएंगे।' भगवान् मौन रहे और गोशालक भी कुछ नहीं बोला। ग्रामप्रधान का पुत्र और विद्युन्मती वहां कुछ समय बिताकर जाने लगे। गोशालक ने उस महिला को छूआ। उसने कहा- 'अरे! यहां कोई है।' ग्रामप्रधान के पुत्र ने गोशालक को पीटा और कहा- 'यह धूर्त है। इसने हमें अनाचार का आचरण करते हुए देख लिया है।' गोशालक भगवान् के पास जाकर बोला- 'भंते ! मैं अकेला पीटा जाता हूं। आप उसका निवारण नहीं करते।' सिद्धार्थ ने कहा- 'तुम अपना आचरण ठीक क्यों नहीं रखते? क्या हम भी तुम्हारे साथ पीटे जाएं? तुम भीतर क्यों नहीं बैठते, द्वार पर क्यों बैठते हो?'
भगवान् वहां से पात्रालक सन्निवेश में जाकर एक शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित हो गए। गोशालक पीटे जाने के भय से अन्दर जाकर बैठा। वहां ग्रामप्रधान का पुत्र स्कन्दक अपनी पत्नी से लज्जित होकर अपनी निजी दासी दत्तिलिका के साथ उसी शून्यगृह में प्रविष्ट हुआ। उन्होंने भी पूछा- 'कोई भीतर है?' किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया, मौन रहे। जब वे दोनों बाहर जाने लगे तब गोशालक हंस पड़ा। ग्रामप्रधान के पुत्र ने उसे पीटा। भगवान् पर कुपित होकर गोशालक बोला- 'मैं पीटा जाता हूं फिर भी आप इसको नहीं रोकते। मैं आपके पीछे क्यों चल रहा हूं?' तब सिद्धार्थ बोला- 'तुम अपने ही अपराध से पीटे जाते हो। तुम अपनी वाणी और मुंह पर नियंत्रण क्यों नहीं रखते?'
भगवान् कुमाराक सन्निवेश में गए। वहां जाकर चम्पकरमणीय उद्यान में प्रतिमा में स्थित हो गए। उसी सन्निवेश में पार्खापत्यीय बहुश्रुत स्थविर मुनिचन्द्र अपने शिष्यों के साथ कूपनय नामक कुम्भकार की शाला में स्थित थे। वे अपने शिष्य को गण का भार सौंपकर जिनकल्पप्रतिमा की साधना कर रहे थे। वे
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