Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 496
________________ आवश्यक नियुक्ति ४३५ • की हैं।' वह विधि का अनुस्मरण करने लगा। तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उससे देवभव, मनुष्यभव तथा पूर्वाचरित श्रामण्य की स्मृति हो आई । इस स्मृति से उसका वैराग्य बढ़ा। धर्मध्यान से अतीत हो, विशुद्ध परिणामों में बढ़ता हुआ, शुक्ल - ध्यान की दूसरी भूमिका का अतिक्रमण कर, ज्ञान- दर्शन, चारित्र और मोहान्तराय को नष्ट कर वह केवली हो गया । वह उटज से बाहर निकला। उसने अपने पिता राजर्षि सोमचन्द्र तथा महाराज प्रसन्नचन्द्र को जिनप्रज्ञप्त धर्म का उपदेश दिया। दोनों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। दोनों ने केवली को सिर नमाकर प्रणाम किया। वे बोले-'तुमने हमको अच्छा मार्ग दिखाया। प्रत्येकबुद्ध वल्कलचीरी पिता को साथ ले वर्द्धमानस्वामी के पास गया। महाराज प्रसन्नचन्द्र अपने नगर में चले गए। तीर्थंकर भगवान् महावीर विहरण करते हुए पोतनपुर के मनोरम उद्यान समवसृत हुए। महाराज प्रसन्नचन्द्र को वल्कलचीरी के उपदेश से वैराग्य उत्पन्न हुआ। तीर्थंकर के वचनों से उसका उत्साह बढ़ा और वह बाल - पुत्र को राज्यभार संभलाकर प्रव्रजित हो गया। उसने सूत्रार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लिया। तप और संयम से अपने आपको भावित करता हुआ राजर्षि प्रसन्नचन्द्र मगधपुरी (राजगृह) में आए। वहां वे आतापना ले रहे थे । महाराज श्रेणिक ने उनको सादर वंदना की। यह उनके निष्क्रमण की कहानी है। भगवान् महावीर श्रेणिक के समक्ष प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के अशुभ-शुभ ध्यान के कारण नरकदेवगति की उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन कर रहे थे, इतने में ही राजर्षि जहां आतापना में स्थित थे, वहां देवों का उपपात हो रहा था। श्रेणिक ने भगवान् से पूछा - 'भगवन् ! यह देव - संपात क्यों हो रहा है ?' भगवान् बोले- 'अनगार प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है इसलिए देव आ रहे हैं।' फिर श्रेणिक ने पूछा‘भगवन्! केवलज्ञान कब किससे व्युच्छिन्न होगा ?' उस समय ब्रह्मलोक का देवेन्द्र सामानिक विद्युन्माली देव अपने तेज से दसों दिशाओं में उद्योत करता हुआ वंदना करने आया । भगवान् ने श्रेणिक को दिखाया कि यही अंतिम केवली होगा।' १०१. अनुकम्पा से सामायिक ( बोधि ) की प्राप्ति द्वारिका में कृष्ण वासुदेव के दो वैद्य थे - धन्वन्तरी और वैतरणी । धन्वन्तरी अभव्य था और वैतरणी भव्य । वैतरणी ग्लान साधुओं की प्रेमपूर्वक सेवा करता था। वह उनको प्रासुक औषधि बताता और जो औषधियां उसके पास होतीं, वह उन साधुओं को देता था । धन्वन्तरी ऐसी सावद्य औषधियां बताता, जो साधुओं के प्रायोग्य नहीं होती थीं । साधु कहते - ' वैद्यराज ! ये औषधियां हमारे योग्य कहां हैं?' वह कहता- 'मैंने श्रमणों के लिए वैद्यकशास्त्र पढ़ा है क्या ?' ये दोनों वैद्य महारंभी और महापरिग्रही थे । | वे पूरी द्वारिका में चिकित्सा करते थे। एक बार वासुदेव कृष्ण ने तीर्थंकर से पूछा - 'ये वैद्य ढंक आदि अनेक प्राणियों का वध करते हैं। यहां से मरकर कहां जायेंगे ?' तब तीर्थंकर बोले- 'यह धन्वन्तरी वैद्य अप्रतिष्ठान नरक में उत्पन्न होगा और वैतरणी वैद्य कालंजर अटवी के पास बहती गंगा और विन्ध्य के मध्य में वानर के रूप में उत्पन्न होगा।' अवस्था प्राप्त होने पर वह वानर- यूथपति बन जायेगा। वहां एक बार साधुओं का १. आवनि. ५४५, आवचू. १ पृ. ४५५-४६०, मटी. प. ४५७-४६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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