Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 501
________________ ४४० परि. ३ : कथाएं की श्रद्धा जागी। तीसरे दिन वह भोजन के लिए घूम रहा था। सार्थवाह ने बुलाकर पूछा- 'कल क्यों नहीं आए?' मौन रहने पर सार्थवाह ने सोचा कि इसने बेले की तपस्या की है अत: उसे स्निग्ध भोजन दिया। दो दिन और ऐसे ही बीत गए। लोगों में उसके प्रति श्रद्धा भावना बढ़ी। उसे कोई भोजन का निमंत्रण देता तो भी वह स्वीकार नहीं करता। लोगों में यह प्रसिद्धि हो गई कि यह एकपिंडिक है। चलते-चलते वे अष्टापद पर्वत पर पहुंचे। वणिक् ने कहा- 'तुम दूसरों के यहां पारणा ग्रहण मत किया करो। जब तक नगर न आ जाए, तब तक मैं तुमको भिक्षा दूंगा।' नगर में पहुंचने पर वणिक् ने उसके लिए अपने घर में मठ बना दिया। उसने अपना सिर मुंडाया और भगवे वस्त्र धारण कर लिए। लोगों में वह संन्यासी के रूप में प्रसिद्ध हो गया। अब वह उस घर में भी रहना नहीं चाहता था। जिस दिन उसके पारणा होता उस दिन अनेक लोग आहार लेकर आते। वह एक ही व्यक्ति का पिंड लेता पर लोग नहीं जानते थे कि वह किसका ग्रहण करेगा। तब लोगों ने ज्ञापित करने के लिए भेरी की व्यवस्था कर कहा कि जो भोजन देगा. वह भेरी बजायेगा। जो उसको भोजन देता, वह भेरी बजाता। इस प्रकार काल बीतने लगा। एक बार भगवान् महावीर वहां पधारे। उन्होंने साधुओं से कहा-'कुछ देर ठहरो, अभी अनेषणा है।' जब वह संन्यासी भोजन कर चका तब भगवान बोले-'अब भिक्षा के लिए जाओ।' उन्होंने गौतम को बुलाकर कहा- 'तुम जाओ और मेरे वचन से उस साधु को कहो- 'अहो! अनेकपिंडिक! तुमको एकपिंडिक देखना चाहते हैं।' गौतम स्वामी वहां गए और भगवान् के निर्देशानुसार उसे कहा। वह रुष्ट होकर बोला'तुम अनेक पिंड खाते हो। मैं एकपिंड खाता हूं इसलिए मैं एकपिडिक हूं और तुम अनेकपिंडिक हो।' कुछ क्षण बीतने पर उसका रोष उपशांत हुआ। उसने सोचा- 'ये मुनि मृषा नहीं बोलते। इनकी बात सच हो सकती है?' उसे श्रुति प्राप्त हुई। उसने सोचा- 'मैं अनेकपिंडिक हूं क्योंकि जिस दिन मेरे पारणा होता है, सैंकड़ों पिंड बनाए जाते हैं। ये मुनि अकृत और अकारित पिंड लेते हैं इसलिए इनका कहना सत्य है।' इस प्रकार सोचते-सोचते उसे जातिस्मृति ज्ञान प्राप्त हो गया। वह प्रत्येकबुद्ध हो गया। इन्द्रनाग नामक वह साधु अर्हत् हुआ और सिद्धि गति प्राप्त कर ली। उसने बालतप से सामायिक-बोधि प्राप्त की। १०४. दान से सामायिक की प्राप्ति (कृतपुण्य) एक नगर में एक वत्सपाली–धायमाता रहती थी। उसके एक पुत्र था। एक दिन उत्सव पर लोगों ने अपने-अपने घरों में खीर बनाई। वत्सपाली के पुत्र ने दूसरे बच्चों को खीर खाते देखा तो वह अपनी मां से बोला- 'मुझे भी खीर पकाकर दो।' सामग्री नहीं है, यह सोचकर वह रो पड़ी। उसकी सखियों ने उससे रोने का कारण पूछा। उसने सरलता से कारण बता दिया। तब उन्होंने सारी सामग्री लाकर दे दी। कोई दूध ले आई, कोई तन्दुल और कोई चीनी। तब उस स्थविरा ने खीर पकाकर घृत-मधु से संयुक्त कर एक थाली में परोस कर बालक के सामने रख दी। इतने में मासक्षपण की तपस्या के पारणे में घूमते-घूमते एक मुनि वहां आ पहुंचे। मां भीतर गई हुई थी। बालक ने सोचा- 'मुझे भी धर्म का लाभ कमाना है।' उसने अपनी थाली में पड़ी खीर का तीसरा भाग मुनि को दे दिया। फिर सोचा, यह तो बहुत कम है। तब उसने दूसरा भाग १. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४६५, ४६६, हाटी. १ पृ. २३५, मटी. प. ४६३, ४६४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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