Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 500
________________ आवश्यक नियुक्ति ४३९ के साथ जा रही हो। ध्रुव को छोड़कर अध्रुव को ग्रहण कर रही हो। मैं तुम्हारी प्रकृति और स्वभाव को जान गया हूं। दूसरा कौन व्यक्ति तुम्हारे में विश्वास करेगा।' रानी बोली- 'क्या तुम वास्तव में चले जा रहे हो?' वह बोला- 'जैसे तुमने महावत को मरवाया वैसे ही मुझे भी कभी मरवा डालोगी।' वह चोर पलायन कर गया। नदी तट पर एक व्यक्ति कांटों से विद्ध होकर पड़ा था। उसने पानी मांगा। वहां एक श्रावक आया। वह बोला-'यदि तुम नमस्कार मंत्र का जाप करोगे तो मैं पानी दूंगा।' वह विद्ध व्यक्ति उसके निकट गया और नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए दिवंगत हो गया। मरकर वह व्यंतर देव बना। आरक्षक पुरुषों ने श्रावक को चोर समझकर पकड़ लिया। उस व्यंतर देव ने अवधिज्ञान का प्रयोग कर देखा कि उसके पूर्वभव का शव पड़ा है और श्रावक आरक्षकों द्वारा बद्ध है। तब उसने शिला की विकुर्वणा कर फेंकी। व्यन्तर देव ने रानी को शरस्तंब में छुपी हुई देखा। तब उसके मन में घृणा उत्पन्न हुई। देव ने श्रृगाल का रूप बनाया और अपने मुंह में मांसपेशी लेकर नदी की ओर चला। इतने में ही नदी से उछलकर एक मत्स्य तट पर आ गिरा। मांसपेशी को वहीं छोडकर मत्स्य को पकडने दौडा। मत्स्य पानी में चला गया तभी बाज उस मांसपेशी को लेकर उड़ गया। तब श्रृगाल शोकाकुल हो गया। यह देखकर वह रानी बोली-'हे जम्बुक! मांसपेशी को छोड़कर मत्स्य की आशा करते हो? मासंपेशी भी गई और मत्स्य भी नहीं मिला। अब तुम विलाप क्यों कर रहे हो?' वह सियालरूप देव बोला- 'हे पत्रपुटों से आच्छादित सुंदरी! पिता की अपकीर्ति करने वाली! तेरा पति भी गया और जार भी। हे पुंश्चली! अब क्यों शोक कर रही है ?' ऐसा सुनकर वह उदासीन और लज्जित हो गई। तब देव ने अपना असली रूप दिखाया और बोला- 'तुम प्रव्रजित हो जाओ।' देव ने राजा को तर्जित किया। उसने श्रावक को छोड़ दिया। उसका अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाया। मरकर वह देवलोक में उत्पन्न हुई। १०३. बाल-तपस्या से सामायिक की प्राप्ति (इन्द्रनाग) वसंतपुर नगर में मारी के प्रकोप से एक सेठ का घर उजड़ गया। उनके इन्द्रनाग नामक एक पुत्र था, जो मारी के प्रकोप से बच गया। बालक ने भूख और प्यास से व्याकुल होकर, प्यास बुझाने के लिए पानी मांगा। उसने देखा कि परिवार के सारे सदस्य मर गए। उसके घर के द्वार को गांव के लोगों ने कांटों की बाड़ से ढक दिया था। उसको वहां छह दिन बीत गए। तब वह एक शून्य छिद्र से घर से बाहर निकलकर उसी नगर में भीख मांगने लगा। लोग उसको अपने नगर का भूतपूर्व सदस्य समझकर कुछ न कुछ देते। इस प्रकार वह बढ़ रहा था। एक बार राजगृह से एक वणिक् आया। उसने घोषणा करवाई कि यदि कोई साथ आना चाहे तो आ सकता है। उस बालक ने यह घोषणा सुनी और वह सार्थ के साथ हो गया। सार्थ के साथ उसे खाने के लिए चावल का भोजन मिला। उसने भोजन किया पर वह पचा नहीं। दूसरे दिन वह वहीं रहा लेकिन भोजन नहीं किया। सेठ ने सोचा इसके उपवास है तथा यह अव्यक्तलिंगी है। दूसरे दिन भोजन के लिए घूमने पर सेठ ने उसे अति स्निग्ध आहार दिया। दूसरे दिन भी उसके अजीर्ण हो गया। सार्थवाह ने समझा कि यह षष्ठ्यन्नकालिक है अर्थात् बेले की तपस्या वाला है। उसके प्रति सार्थवाह १. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४६१-४६५, हाटी. १ पृ. २३३-२३५, मटी. प. ४६१-४६३ 1 २. चूर्णि में जीर्णपुर नगर का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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