Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 462
________________ आवश्यक नियुक्ति ४०१ घर की बेटी है। इसे कष्ट न होने पाए यह सोचकर उस नाविक ने जितना मूल्य बताया उस मूल्य में सेठ ने वसुमती को खरीद लिया। सेठ ने पूछा- 'बेटी ! तुम कौन हो?' वह कुछ नहीं बोली। वह उसे पुत्री मानकर घर ले गया। सेठ ने मूला से कहा- 'यह तेरी बेटी है।' वसुमती अपने घर की भांति वहां सुखपूर्वक रहने लगी। वसुमती ने अपने शील और विनीत व्यवहार से पूरे परिजनों को आत्मीय बना डाला। सभी परिजन कहने लगे-'यह शीलचन्दना है।' वहां उसका दूसरा नाम चंदना हो गया। काल बीतता गया। उसकी सुन्दरता को देखकर मूला के मन में अन्यथाभाव आने लगे। उसमें मत्सरभाव बढ़ा। उसने सोचा, संभव है सेठ इसे अपनी पत्नी बना ले। उस समय यह गृहस्वामिनी हो जाएगी और मैं अस्वामिनी बन जाऊंगी। चन्दना की केशराशि अतीव दीर्घ, रमणीय और काली थी। एक दिन सेठ मध्याह्न में घर आया। उस समय सेठ के पैर प्रक्षालन करने वाला कोई दास नहीं था। तब चंदना पानी लेकर पैर धोने आई। सेठ ने निषेध किया पर वह हठपूर्वक पैर प्रक्षालन करने लगी। उस समय उसकी चोटी खुल गई और बाल बिखर गए। बाल पैर धोने के पानी में न गिर पडें, इस दृष्टि से सेठ ने एक लकड़ी के टुकड़े से उन्हें उठा लिया और जूड़े में बांध दिया। मूला झरोखे से यह सब देख रही थी। उसने सोचा, सारा काम बिगड़ गया। यदि सेठ किसी भी प्रकार से इससे विवाह कर लेगा तो फिर मेरा स्थान यहां कुछ भी नहीं रहेगा। नीतिकार कहते हैं- 'व्याधि जब तरुण हो, तभी उसकी चिकित्सा कर लेनी चाहिए।' सेठ चला गया। मूला ने एक नाई को बुलाकर वसुमती को मुंड कर डाला। उसे सांकलों से बांधा और पीटा। फिर मूला ने सभी परिजनों से कहा कि जो कोई इस घटना की चर्चा सेठ के समक्ष करेगा, उसे मैं घर में नहीं रहने दूंगी। सारे लोग भयभीत हो गए। मूला ने चंदना को एक ओरे में बंद कर उसके ताले जड़ दिए। कुछ समय बाद सेठ घर आया। उसने पूछा-'चंदना कहां है ?' सभी मौन थे। भय के कारण कोई नहीं बोला। सेठ ने सोचा, वह भवन के ऊपरी भाग में खेलती होगी। रात्रि में भी सेठ ने पूछा पर कोई उत्तर नहीं मिला। सेठ ने सोचा, 'सो गई होगी।' दूसरे दिन भी चन्दना नहीं दिखी। तीसरे दिन सेठ ने सघन पृच्छा की। उसने कहा- 'सही बात बताओ, अन्यथा मैं सबको मार डालूंगा।' तब एक वृद्धा दासी ने कहा- 'मुझे जीने से क्या? वह बेचारी जी जाए।' तब उसने सेठ से कहा- 'चंदना अमुक कमरे में बंद है।' धनावह ने कमरा खोला और क्षुधा से आहत चंदना को देखा। उसने दासी से ओदन मांगा। वह नहीं मिला। तब बासी कुल्माषों को देख सेठ ने एक सूर्प के कोने में उन्हें रख चंदना को खाने के लिए दिया। वह स्वयं लोहकार को सांकल खोलने या तोड़ने के लिए बुलाने चला गया। जैसे हथिनी आलान स्तंभ से छूटकर अपने घर (विंध्य पर्वत) का स्मरण करती है, वैसे ही चंदना अपने कुल की स्मृति करती हुई, घर की दहलीज के बाहर आई और अपने पूर्वकृत कर्मों का स्मरण करती हुई अन्त:करण में रोने लगी। भगवान् भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए वहां आए। चंदना ने सोचा- 'भगवान् को दान दूं। मेरे द्वारा आचीर्ण अधर्म के परिणाम स्वरूप ही मेरी यह दशा हुई है।' उसने कहा-'भगवन्! ये उड़द के बाकुले आपको कल्पते हैं।' चारों प्रकार के अभिग्रहों की संपूर्ति जान कर भगवान् ने हाथ पसारे। चंदना ने उड़द के बाकुले दिए। भगवान् का पारणा हो गया। पांच दिव्य प्रगट हुए। चंदना की केशराशि पूर्ववत् रमणीय हो गई। उसकी सांकलें स्वतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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