Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 474
________________ आवश्यक नियुक्ति ४१३ प्रव्रजित हो गया है तो वह चिंतन की गहराई में उतरा। उसे जातिस्मृति ज्ञान की प्राप्ति हो गई। अब वह रातदिन रोने लगा। उसने सोचा- 'यदि निरंतर रोता रहूंगा तो परिवार के लोगों को मेरे से विरक्ति हो जाएगी, तब मुझे प्रव्रज्या लेने में सुविधा होगी।' इस प्रकार छह मास बीत गए। एक बार आचार्य उस नगरी में आए। तब मनि आर्यसमित और धनगिरि ने आचार्य से पछा'भंते ! हम दोनों ज्ञातिजनों को दर्शन देने जाते हैं, आप आज्ञा प्रदान करें।' पक्षी की आवाज सुनकर आचार्य बोले- 'आज महान् लाभ होगा। तुम्हें सचित्त या अचित्त-जो भी मिले, वह ले आना।' वे दोनों गए। लोग उन्हें बुरा-भला कहकर पीड़ित करने लगे। बालक छह महीनों से रो रहा था। मां अत्यंत दु:खी थी। अन्य स्त्रियों ने सुनन्दा से कहा- 'इस बालक को मुनियों के समक्ष रख दो।' सुनन्दा बोली- 'महाराज ! मैंने इतने दिनों तक इसकी अनुपालना की, अब आप इसकी संभाल करें।' मुनि बोले- 'बाद में तुम्हें पश्चात्ताप न हो।' मुनियों ने दूसरे को साक्षी रखकर उस छह महीने के बालक को चोलपट्टे की झोली बनाकर उसमें ले लिया। बालक ने रोना बंद कर दिया। वे दोनों मुनि आचार्य के पास आए। भाजन भारी है, यह सोचकर आचार्य ने हाथ पसारे। उन्होंने झोली आचार्य के हाथ में दी। भार के कारण हाथ भूमि पर जा टिका। आचार्य बोले- 'प्रतीत होता है कि इसमें वज्र है।' फिर देखा कि उसमें देवकुमारसदृश एक बालक है। बालक को देखकर आचार्य ने कहा- 'इसका संरक्षण करो। यह भविष्य में जिन-प्रवचन का आधार होगा।' उसका नाम 'वज्र' रखा गया। आचार्य ने बालक साध्वियों को सौंप दिया। उन्होंने शय्यातर को दे दिया। शय्यातर जैसे अपने बालकों को स्नान कराता, मंडन करता, दूध पिलाता वैसे ही सबसे पहले बालक वज्र की सारसंभाल करता। जब बालक को शौच जाना होता तो बालक कुछ संकेत करता अथवा चिल्लाता। इस प्रकार वह बड़ा होने लगा। बालक को प्रासुक-प्रतिकार इष्ट था। साधु वहां से विहार कर अन्यत्र चले गए। सुनन्दा ने शय्यातर से अपना पुत्र मांगा। शय्यातर ने बालक को देने से यह कहकर इन्कार कर दिया कि वह अमुक द्वारा दिया गया है अत: यह हमारा निक्षेपक है, धरोहर है। सुनन्दा वहां आकर रोज उसे स्तनपान कराती। इस प्रकार वह बालक तीन वर्ष का हो गया। ___ एक बार मुनि विहार करते हुए वहां आए। राजकुल में बालक विषयक विवाद पहुंचा। शय्यातर ने राजा से कहा- 'इन साध्वियों ने मुझे यह बालक सौंपा है।' सारा नगर सुनन्दा के पक्ष में था।' वह बहुत सारे खिलौने लेकर वहां उपस्थित हुई। राजा के समक्ष इस विवाद का निबटारा होना था। राजा पूर्वाभिमुख होकर बैठा। उसके दक्षिण दिशा में मुनि तथा वामपार्श्व में सुनन्दा और उसके पारिवारिक जन बैठ गए। राजा ने कहा-'ममत्व से प्रेरित होकर यह बालक जिस ओर जाएगा, वह उसी का होगा।' सभी ने इस बात को स्वीकार किया। पहले कौन बुलाए-इस प्रश्न पर राजा ने कहा-धर्म का आदि है पुरुष इसलिए पहले पुरुष बुलाए। तब नागरिकों ने कहा- 'यह इनके परिचित है, इसलिए अच्छा हो कि पहले माता बुलाए क्योंकि मां दुष्करकारिका तथा कोमलांगी होती है। मां आगे आई। उसके हाथ में अश्व, हाथी, रथ, वृषभ आदि खिलौने थे। वे मणि, सोना, रत्न आदि से जटित थे। वे सभी खिलौने बालक को लुभाने वाले थे। उन्हें दिखाती हुई मां सुनन्दा ने बालक की ओर देखकर कहा- 'आओ, वज्रस्वामी!' यह सुनकर बालक उस ओर देखता रहा। उसने मन ही मन जान लिया कि यदि मैं संघ की अवमानना करता हूं तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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