Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 491
________________ ४३० परि. ३ : कथाएं गोष्ठामाहिल ने सुना कि आचार्य दिवंगत हो गए हैं तो वह आने-जाने वालों से पूछता- 'आचार्य ने गण का भार किसको सौंपा है?' उसने कटक दृष्टान्त सना। वह दशपुर नगर आया और एक पृथक उपाश्रय में ठहरा। सभी संत आए और बोले- आप यहां क्यों ठहरे हो? हमारे साथ ठहरो।' वह उनके साथ जाना नहीं चाहता था। वह अलग रहकर लोगों को भ्रान्त करने लगा। मुनियों को वह भ्रान्त नहीं कर सका। आचार्य अर्थपौरुषी देने लगे। वह नहीं सुनता। वह कहता- 'तुम सब यहां निष्पावकुट के समान हो।' आचार्य के उठ जाने पर विंध्य अर्थपौरुषी देने बैठा। उसको वह सुनता था। उस समय आठवें पूर्व कर्मप्रवाद के अन्तर्गत कर्म का वर्णन चल रहा था कि जीव के कर्मों का बंध कैसे होता है ? जीव और कर्म का आपस में संबंध कैसे होता है? इसकी व्याख्या सुनते हुए अभिनिवेश के कारण वह निह्नव हो गया। ९८. आनन्द श्रावक वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक गाथापति रहता था। उसकी भार्या का नाम शिवानन्दा था। वाणिज्यग्राम के निकट ही कालक नामक सन्निवेश था। वहां आनन्द के अनेक मित्र और ज्ञातिजन रहते थे। एक बार भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम के दूतिपलाश चैत्य में समवसृत हुए। महाराज जितशत्रु अपने परिवार के साथ भगवान् की उपासना करने गए। आनन्द ने भी भगवान् के आगमन की बात सुनी। वह भी भगवान् के दर्शन करने गया। भगवान् ने धर्म-प्रवचन किया। परिषद् अपने-अपने गंतव्य की ओर चली गई। धर्म-प्रवचन सुनकर आनन्द ने अत्यंत हृष्टतुष्ट होकर भगवान् से कहा-'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं किन्तु मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने में समर्थ नहीं हूं।' मैं श्रावक धर्म के बारह व्रतों को स्वीकार कर सकता हूं। भगवान् बोले-'ठीक है, जितना तुम्हारा सामर्थ्य हो उतना स्वीकार करो।' आनन्द ने श्रावकधर्म के बारह व्रत स्वीकार कर लिए। चौदह वर्षों तक उसने उनका संपूर्णरूप से पालन किया। तत्पश्चात् वह श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार कर उनका यथाविधि पालन करने लगा। जब वह ग्यारहवीं प्रतिमा में संलग्न था, तब उसे अवधिज्ञान की उपलब्धि हुई। इस प्रकार बीस वर्ष तक श्रावकधर्म की सविधि परिपालना कर अन्त में मासिक संलेखना से मरण प्राप्त कर वह सौधर्म देवलोक के अरुण विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। ९९. कामदेव श्रावक चंपा नगरी में कामदेव गाथापति रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। एक बार भगवान् महावीर चंपा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में समवसृत हुए। कामदेव ने भगवान् से श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए। बारह वर्षों तक उनका यथाविधि पालन कर वह श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की साधना में संलग्न हो गया। वह ग्यारहवीं प्रतिमा कर रहा था। उस समय देव-उपसर्ग हुआ। देव ने पिशाच, हाथी और सर्प का रूप धारण कर कामदेव को विचलित करना चाहा। कामदेव अपनी साधना से तनिक भी स्खलित नहीं १. आवनि. ४७९-४८०, आवचू. १ पृ. ४०१-४१३, हाटी. १ पृ. २००-२०७, मटी. प. ३९४-४०१ । २. आवनि, ५४५, आवचू. १ पृ. ४५२, ४५३, मटी. प. ४५६, ४५७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592