Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 473
________________ ४१२ परि. ३: कथाएं गया। वैश्रमण देव के एक सामानिक देव का नाम जुंभक था। उसने उस पुंडरीक अध्ययन का पांच सौ बार पारायण किया। इससे उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। दूसरे दिन गौतम चैत्य-वंदन कर अष्टापद पर्वत से नीचे उतरे। वे तापस गौतम के पास आकर बोले-'आप हमारे आचार्य हैं, हम सब आपके शिष्य।' गौतम बोले-'मेरे और तुम्हारे आचार्य हैंत्रिलोकगुरु भगवान् महावीर।' तापस बोले- 'आपके भी कोई दूसरे आचार्य हैं ?' तब गौतम ने भगवान् महावीर के गुणों की स्तुति की। गौतम ने उनको प्रव्रजित कर दिया। देवताओं ने उनके लिए साधु के वेश प्रस्तुत किए। सभी गौतम स्वामी के साथ चले। चलते-चलते भिक्षावेला हो गई। गौतम ने पूछा- 'पारणक में क्या लाएं?' तापस बोले-'पायस।' भगवान गौतम भिक्षा लेने गए। वे सभी लब्धियों से परिपूर्ण थे। वे घृतमधुसंयुक्त पायस से पात्र भरकर लाए और अपनी अक्षीणमहानस लब्धि से एक पात्र पायस से सबको पारणा करा दिया। फिर स्वयं ने भी पारणा किया। सभी पूर्ण तृप्त हो गए। शैवाल खाने वाले पांच सौ तापसों को गौतम स्वामी की इस लब्धि को देखकर केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। दत्त तापस और उसके शिष्यों को भगवान् महावीर के छत्रातिछत्र अतिशय देखकर केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। भगवान् के साक्षात् दर्शन कर कौंडिन्य और उसके शिष्यों को भी केवलज्ञान प्राप्त हो गया। गौतम स्वामी आगे चल रहे थे। शेष सभी उनके पीछे चल रहे थे। सभी ने भगवान् को प्रदक्षिणा दी और जो केवली थे, वे केवली-परिषद् की ओर जाने लगे। गौतम स्वामी ने कहा- 'आओ, पहले भगवान् को वंदना करो।' तब भगवान् महावीर बोले'गौतम! केवलियों की आशातना मत करो।' गौतम भगवान् की ओर मुड़े और मिच्छामि दुक्कडं किया। भगवान् गौतम को गहरी अधृति हो गई। भगवान् महावीर ने तब कहा- 'देवता का वचन ग्राह्य है अथवा जिनेश्वर देव का?' गौतम बोले- 'जिनेश्वर देव का।' भगवान् ने कहा- 'तब तुम अधृति क्यों कर रहे हो?' भगवान् ने तब चार प्रकार के कटों की बात कही। चार प्रकार के कट होते हैं-शुंबकट, विदलकट, चर्मकट और कंबलकट। इसी प्रकार शिष्य भी चार प्रकार के होते हैं-शुंबकट के समान, विदलकट के समान, चर्मकट के समान तथा कंबलकट के समान । गौतम! तुम मेरे कंबलकट के सदृश शिष्य हो। तुम मेरे चिर-संसृष्ट और चिर-परिचित हो। अंत में हम दोनों समान हो जायेंगे। तब भगवान् ने गौतमस्वामी की निश्रा में द्रुमपत्रक अध्ययन की प्रज्ञापना की। इधर वैश्रमण सामानिक देव वहां से च्युत होकर अवंती जनपद में तुंबवन सन्निवेश में धनगिरि नामक श्रेष्ठी के घर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। धनगिरि प्रव्रज्या ग्रहण करने को इच्छुक था। उसके मातापिता निषेध करते थे। जहां-जहां माता-पिता उसके विवाह की बात करते, वहां-वहां वह उन कन्याओं को यह कह कर विपरिणत कर देता कि वह दीक्षा लेगा। उसी नगर में सेठ धनपाल की पुत्री सुनन्दा ने पिता से कहा- 'मैं धनगिरि के साथ विवाह करूंगी।' पिता ने उसका विवाह कर दिया। उसका भाई आर्य समित आचार्य सिंहगिरि के पास पहले ही दीक्षित हो गया था। वैश्रमण का यह सामानिक देव देवलोक से च्युत होकर सुनन्दा के गर्भ में उत्पन्न हुआ। तब धनगिरि ने सुनन्दा से कहा- 'इस गर्भ में उत्पन्न पुत्र के कारण तुम दो हो जाओगी, अकेली नहीं रहोगी।' यह कहकर धनगिरि सिंहगिरि आचार्य के पास दीक्षित हो गया। गर्भ के नौ मास बीते । सुनन्दा ने बालक का प्रसव किया। वहां आने वाली महिलाएं कहने लगीं'यदि इस बालक के पिता प्रव्रजित नहीं होते तो अच्छा होता।' बालक ने जब यह सुना कि उसका पिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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