Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 470
________________ ४०९ आवश्यक नियुक्ति बदला लेने का अच्छा समय है।' उसने चारों ओर देखा । गीली मिट्टी से उसके मस्तिष्क के चारों ओर पाल बांध दी। फिर जलती हुई चिता से अंगारे लाकर सिर पर रख दिए। भयभीत होकर वह शीघ्र ही वहां से चला गया। गजसुकुमाल के शरीर में विपुल वेदना उत्पन्न हो गई। सोमिल ब्राह्मण के प्रति किसी प्रकार की द्वेष भावना लाए बिना उन्होंने समता से उस वेदना को सहा। तब शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्या द्वारा तदावरणीय कर्म के क्षय होने से अपूर्वकरण में प्रविष्ट होकर उन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति कर ली। उसके पश्चात् सब कर्मों का क्षय करके वे मुक्त हो गए। निकटस्थ देवों ने कैवल्यमहोत्सव मनाया। भगवान् अरिष्टनेमि को वंदना हेतु श्रीकृष्ण द्वारिका नगरी के मध्य से निकल रहे थे। उन्होंने एक वृद्ध पुरुष को देखा, जो गली से एक-एक ईंट उठाकर अपने घर के अंदर ले जा रहा था। अनुकम्पावश श्रीकृष्ण ने हाथी पर बैठे-बैठे ही एक ईंट उसके घर पहुंचा दी। श्रीकृष्ण को देखकर अनेक पुरुषों ने ईंटों को उठाकर उसके घर में रख दिया। वासुदेव ने भगवान् अरिष्टनेमि को चरण-वंदना कर अन्यान्य मुनियों को वंदना की। मुनि गजसुकुमाल को न देखकर उन्होंने पूछा- 'भगवन् ! मुनि गजसुकुमाल कहां हैं ?' भगवान् अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण को सारी बात बताई। श्रीकृष्ण ने रोषारुण होकर सोमिल ब्राह्मण के बारे में पूछा। भगवान् ने कहा- 'वासुदेव ! तुमको क्रोध नहीं करना चाहिए क्योंकि वह सोमिल ब्राह्मण तो कर्म काटने में उसका सहायक बना है। जैसे कल तुमने उस वृद्ध व्यक्ति को सहायता दी वैसे ही सोमिल अनेक भव के संचित कर्मों की उदीरणा और निर्जरा करवाने में सहायक बना है।' श्रीकृष्ण ने भगवान् से पूछा- 'मैं उस सोमिल ब्राह्मण को कैसे पहचानूंगा?' भगवान् ने कहा'नगर में प्रवेश करते हुए तुमको देखकर भय से हृदय-गति रुक जाने से वह मृत्यु को प्राप्त कर लेगा। यहां से वह अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होगा। श्रीकृष्ण भगवान् को वंदना करके अपने महलों की ओर जाने लगे। सोमिल ब्राह्मण ने प्रभात काल में सोचा कि वासदेव जब भगवान को वंदना करने जाएंगे तब भगवान् से उन्हें सारी बात ज्ञात हो जाएगी। बात ज्ञात होने पर श्रीकृष्ण कहीं मुझे कुमौत से न मार दें, यही सोचकर वह अपने घर से बाहर निकला। दौड़ते हुए उसने सामने से आते हुए श्रीकृष्ण को देख श्रीकृष्ण को देखते ही भय के कारण वह कालगत होकर धरती पर गिर पड़ा। श्रीकृष्ण ने उसे देखा और क्रोध में आकर चांडालों को आदेश दिया- 'इसने मेरे सहोदर को अकाल में ही मौत के घाट उतारा है अतः इसके शरीर की दुर्दशा करो और उस स्थान को पानी से साफ करो। श्रीकृष्ण ने उसके परिवार का सर्वस्व हरण कर लिया और पुत्रों को भी अपने अधीन कर लिया। ९३. त्वक् विष से आयुष्य-भेद चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त मर गया तब उसके पुत्र ने ब्रह्मदत्त की स्त्रीरत्न से कहा- 'मेरे साथ सहवास करो।' वह बोली- 'तुम मेरे स्पर्श को सहन नहीं कर सकोगे।' उसे विश्वास नहीं हुआ। उसे विश्वास १. हाटी और मटी के अनुसार भय के कारण सोमिल ब्राह्मण के सिर के टुकड़े-टुकड़े हो गए। २. आवनि. ४३७, आवचू. १ पृ. ३५५-३६६, हाटी. १ पृ. १८२, मटी. प. ३५६-३५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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