Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 452
________________ आवश्यक नियुक्ति ३९१ वहां आया। गोशालक को उस अवस्था में देखकर उसने सोचा- 'लोग मुझे राग-द्वेष युक्त न मान लें, इसलिए वह गांव में गया और लोगों से कहा - 'चलो, मंदिर में जाकर देखो । अन्यथा तुम मुझे रागी कहोगे ।' लोगों ने आकर गोशालक को उस स्थिति में देखा तो उसे पीटा और फिर बांधा। वहां से भगवान् मर्दना नामक गांव में गए। वहां भगवान् बलदेव के मंदिर के एक कोने में प्रतिमा में स्थित हो गए। गोशालक वहां भी बलदेव प्रतिमा की जननेन्द्रिय अपने मुंह में डालकर स्थित हो गया । वहां भी वह पीटा गया। लोगों ने उसे पिशाच मानकर छोड़ दिया। वहां से भगवान् बहुशालक गांव के शालवन उद्यान में ठहरे। वहां 'सालज्जा' नामक व्यन्तरी रहती थी। वह भगवान् की पूजा और स्तुति करती थी। वहां से भगवान् लोहार्गला नामक राजधानी में गए। वहां उस समय जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी अन्य राजाओं के साथ शत्रुता चल रही थी। सीमा में प्रवेश करते ही भगवान् को गुप्तचर समझ कर राजपुरुषों ने उनका निग्रह कर डाला। पूछने पर भगवान् मौन रहे । तब आस्थानमंडप में स्थित राजा के समक्ष दोनों को उपस्थित किया गया। वहां अस्थिकग्राम से आया हुआ नैमित्तिक उत्पल पहले से ही उपस्थित था। उसने राजपुरुषों द्वारा भगवान् को लाते हुए देखा । वह उठा और तिक्खुत्तो के पाठ से वंदना कर राजा से बोला- 'राजन् ! ये गुप्तचर नहीं अपितु सिद्धार्थ महाराज के पुत्र धर्मवरचक्रवर्ती हैं, भगवान् हैं। इनके शारीरिक लक्षणों को आप देखें।' राजा ने उनका आदर-सत्कार किया और मुक्त कर दिया। वहां से भगवान् पुरिमताल नगर में गए। वहां वग्गुर नाम का श्रेष्ठी रहता था। उसकी भार्या का नाम भद्रा था। वह वन्ध्या थी । वह अनेक देवी-देवताओं की मनौती करके थक गई। एक बार वह उज्जैनी नगरी के शकटमुख उद्यान में गई। वहां उसने एक खंडहर मंदिर को देखा। वहां मल्लिस्वामी की प्रतिमा थी । उसने वहां प्रतिमा के समक्ष प्रणाम कर यह संकल्प किया कि यदि मेरे संतान हो जाएगी तो मैं इस मंदिर का जीर्णोद्धार करा दूंगी। मैं इसकी भक्ता हो जाऊंगी। इस प्रकार संकल्प के साथ प्रणाम करके वह चली गई। सन्निहित व्यन्तरी देवी ने अपना अतिशय दिखाया। भद्रा गर्भवती हुई। उसने यथासमय पुत्र का प्रसव किया। मंदिर का जीर्णोद्धार करवा दिया गया। प्रतिमा की त्रिसंध्य पूजा होने लगी। इस प्रकार वह वग्गुर श्रावक बन गया। भगवान् महावीर विचरण करते हुए शकटमुख उद्यान में जाकर प्रतिमा में स्थित हो गए। वर श्रेष्ठी स्नान आदि से शुद्ध होकर, नए वस्त्र धारण कर, हाथ में विविध प्रकार के पुष्पों से सज्जित थाल लेकर, अपने परिजनों के साथ मंदिर में पूजा करने आया। ईशान देवलोक का इन्द्र उस समय अपने यान - विमान एवं ऋद्धि के साथ भगवान् की पर्युपासना में बैठा था । उसने पूजा के लिए हाथ में फूल आदि लिए हुए वग्गुरको आयतन में जाते देखा । इन्द्र बोला- 'वग्गुर ! तुम प्रत्यक्ष तीर्थंकर की महिमा न कर प्रतिमा को पूजने जा रहे हो। ये जगनाथ, लोकपूज्य भगवान् महावीर वर्द्धमान हैं।' वग्गुर ने 'मिच्छामि दुक्कडं ' कहकर क्षमायाचना की और भगवान् की पूजा में लग गया। वहां से भगवान् ऊर्णाक गांव की ओर चले। मार्ग में वर-वधू का युगल मिला। दोनों दन्तुर और विरूप थे। उन्हें देखकर गोशालक बोला- 'यह सुसंयोग है । विधि दक्ष है। कोई दूरस्थ भी क्यों न हो, जो जिसके योग्य होता है, वह उसका संयोग करा देती है।' यह सुनकर लोगों ने गोशालक को पीटा और बांस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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