Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि.३ : कथाएं
७०. कर्मकर द्वारा प्रहार
भगवान् वैशाली पहुंचे और वहां से आज्ञा लेकर कर्मकरशाला में प्रतिमा में स्थित हो गए। वह साधारण शाला थी। वहां एक कर्मकर छह महीनों के पश्चात् शुभतिथि और करण में लोहकार के आयुध लेकर काम प्रारंभ करने आया। आते ही उसने नग्न खड़े महावीर को देखा। भगवान् को अमंगल समझकर वह उन्हें मारने दौड़ा। हाथ में घन लिया और प्रहार करने के लिए ऊपर उठाया। इन्द्र ने अवधिज्ञान से जाना
और क्षण भर में ही वहां आकर उसी घन से उस कर्मकर की घात कर दी।शक्र भगवान् को वंदना कर चला गया।
७१. कटपूतना का उपद्रव
भगवान् ग्रामाक सन्निवेश में बिभेलक उद्यान में प्रतिमा में स्थित हो गए। वहां बिभेलक नामक यक्ष का आयतन था। वह यक्ष प्रतिमा में स्थित भगवान् की पूजा करता था। वहां से भगवान् शालिशीर्षक नामक गांव में गए और वहां उद्यान में प्रतिमा में स्थित हो गए। उस समय माघ महीना था। वहां कटपूतना नाम की व्यन्तरी रहती थी। वह भगवान् के तेज को सहन नहीं कर सकी। उसने तापसी का रूप बनाया, वल्कल धारण किया और जटा में पानी भरकर संपूर्ण शरीर को आर्द्र कर, भगवान् के ऊपर ठहर कर शरीर को कंपित करने लगी। उसने भयंकर वायु की विकुर्वणा की। यदि वहां कोई अन्य साधक होता तो वह छिन्न-भिन्न हो जाता। भगवान् ने उस तीव्र वेदना को समभाव से सहन किया। समभावपूर्वक सहन करने से अवधिज्ञान की सीमा का विस्तार हुआ और वे संपूर्ण लोक को जानने-देखने लगे। गर्भ से प्रारंभ कर शालिशीर्ष ग्राम तक भगवान् का देवलोक प्रमाण अवधिज्ञान था। उनके शरीर के ग्यारह अंग (चैतन्यकेन्द्र) अतीन्द्रिय ज्ञान के साधन थे। उनसे वे देवलोक के पदार्थों तक का ज्ञान कर लेते थे। अब वे लोकावधि से संपन्न हो गए। वह व्यन्तरी पराजित हो गई। जब वह उपशांत हुई, तब उसने भगवान् की पूजा की। ७२. गोशालक का पुन: आगमन
भगवान् भद्रिका नगरी में गए और वहां छठा वर्षावास बिताया। वहां गोशालक छठे महीने में आकर भगवान् से मिला। भगवान् ने वहां चातुर्मासिक तप तथा विचित्र अभिग्रह किए। उस गांव की बाहिरिका में पारणा कर भगवान् आठ मास तक निरुपसर्ग रूप में मगध जनपद में विहरण करते रहे।
भगवान् ने सातवां वर्षावास आलभिका नगरी में बिताया। वहां भी चातुर्मासिक तप किया और बाहिरिका में पारणा कर कुंडाग सन्निवेश में वासुदेव मंदिर के एक कोने में प्रतिमा में स्थित हो गए। गोशालक भी वासुदेव की प्रतिमा के लिंग को मुंह में डालकर स्थित हो गया। इतने में ही मंदिर का पुजारी
१. आवनि. ३००, आवचू. १ पृ. २९२, हाटी. १ पृ. १३९, मटी. प. २८२, २८३। २. सा य किल तिविट्ठकाले अंतेपुरिया आसि ण य तदा पडियरिय त्ति पदोसं वहति-कटपूतना त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में
उनके अंत:पुर की एक रानी थी। उस समय सम्यक् परिचर्या न होने से वह त्रिपृष्ठ के प्रति द्वेष से भर गयी थी। ३. आवनि. ३०१, आवचू. १ पृ. २९२, २९३, हाटी. १ पृ. १३९, मटी. प. २८३।
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