Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं यह प्रशस्त लक्षण है। शास्त्र असत्य नहीं होता। ये धर्म के चातुरन्तचक्रवर्ती हैं। देवेन्द्र, नरेन्द्र द्वारा पूजित हैं। ये भव्यजनरूपी पद्मों के लिए आनन्ददायी होंगे। पुष्य ने यह सुना और समाहित हो गया। वहां से भगवान् राजगृह की ओर प्रस्थित हुए। वहां नालन्दा के बहिर्भाग में तन्तुवायशाला के एक प्रदेश में यथाप्रतिरूप अवग्रह की आज्ञा लेकर प्रथम मासक्षपण स्वीकार कर वहां स्थित हो गए। ६९. गोशालक की कुचेष्टाएं
उस समय और उस काल में मंखली नाम का एक मंख रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। वह गर्भवती हुई। उसने शरवण नामक सन्निवेश के गोबहुल नामक ब्राह्मण की गोशाला में पुत्र का प्रसव किया। उसका गौण नाम गोशाल रखा। जब वह बड़ा हुआ, तब उसे मंखविद्या सिखाई गई। वह चित्रफलक पर चित्रकारी करने लगा। एक बार वह अकेला घूमता हुआ राजगृह की उसी तन्तुवायशाला में आकर ठहरा, जहां भगवान् ठहरे हुए थे। उसने वहीं चातुर्मास किया।
भगवान् मासखमण के पारणे के लिए नगर में विजय नामक गृहपति के घर गए, वहां उन्हें विपुल भोजन की प्राप्ति हुई। पांच दिव्य प्रादुर्भूत हुए। गोशाले ने जब पांच दिव्यों की बात सुनी तो वहां आया और पांच दिव्यों को देखकर बोला- 'भगवन् ! मैं आपका शिष्य हूं।'भगवान् मौनभाव से वहां से चल पड़े। दूसरे मासक्षपण के पारणे में आनन्द गृहपति ने भगवान् को खाद्यक-विधि से प्रतिलाभित किया। तीसरे मासक्षपण का पारणा सुनन्द के घर में सर्वकामगुणित भोजन से किया। तत्पश्चात् चौथे मासक्षपण की तपस्या स्वीकार कर भगवान् विचरण करने लगे।
कार्तिकपूर्णिमा के दिन गोशालक ने पूछा-'भगवन्! क्या मुझे आज भक्तपान मिलेगा?' सिद्धार्थ बोला-'कोद्रव, तन्दल और अम्ल-पान के साथ एक खोटा रूप्यक मिलेगा।' गोशालक नगरी में घूमा। कहीं भी उसे आदर नहीं मिला। अपराह्न में एक कर्मकर ने उसे अम्ल के साथ ओदन दिया, तब उसने भोजन किया। जो एक रूप्यक मिला था, उसकी परीक्षा करने पर वह खोटा निकला। तब उसने सोचा'जो जैसा होता है. उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता।' वह लज्जित होकर स्थान पर आया। भगवान चौ मासक्षपण की तपस्या के पारणक के लिए नालन्दा से निकल कर कोल्लाक सन्निवेश की ओर गए। वहां बहल ब्राह्मण ने दूध और मधु से संयुक्त खीर के भोजन से भगवान् को प्रतिलाभित किया। वहां पांच दिव्य प्रादुर्भूत हुए। गोशालक तन्तुवायशाला में भगवान् को न देखकर राजगृह की ओर गया। गवेषणा करने पर भी भगवान् नहीं मिले। तब अपने भंडोपकरण ब्राह्मणों को देकर, पूरा मुंडन कराकर वह कोल्लाक सन्निवेश पहुंचा। वहां भगवान् से मिला और उनके साथ सुवर्णखल गया। रास्ते में कुछेक ग्वाले बड़े पात्र में गाय के दूध के साथ तंदुलों से खीर पका रहे थे। गोशालक बोला- 'भगवन् ! वहां चलें और खीर का भोजन करें।' सिद्धार्थ बोला-'खीर नहीं पकेगी बीच में ही बर्तन फूट जाएगा।' गोशालक को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वह ग्वालों के पास जाकर बोला- 'ये देवार्य त्रिकालज्ञाता हैं । ये कहते हैं कि खीर का भाजन फूट जाएगा अतः तुम सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा करना।' तब उन ग्वालों ने बर्तन को बांस की खपचियों से बांध दिया। फिर उन्होंने उस दूध भरे बर्तन में बहुत मात्रा में तन्दुल डाले। मात्रा की बहुलता १. आवनि. २८७, आवचू. १ पृ. २८१, २८२, हाटी. १ पृ. १३३, मटी. प. २७५, २७६ ।
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