Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं युक्त लम्बी-चौड़ी चंदप्रभा शिविका में सिंहासन पर बैठकर भगवान् ने अभिनिष्क्रमण किया। उस दिन भगवान् के निर्जल बेले की तपस्या थी। हस्तोत्तर नक्षत्र में देव, दानव और मनुष्यों की परिषद् के बीच शिविका से उतरकर भगवान् ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। इंद्र ने भगवान् के केशों को कीमती वस्त्र में लेकर उन्हें क्षीरसमुद्र में प्रवाहित कर दिया। फिर भगवान् ने सिद्धों को नमस्कार करके सामायिक चारित्र स्वीकार कर सर्व सावध योगों का प्रत्याख्यान कर दिया। दीक्षा लेते ही भगवान् को मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। ५४. देवदूष्य का परित्याग
भगवान् एक देवदूष्य से प्रव्रजित हुए। वे उस वस्त्र को कंधे पर धारण कर रहे थे। उस समय पिता सिद्धार्थ का एक मित्र ब्राह्मण वहां आया। भगवान् ने जब वार्षिक दान दिया था, तब वह कहीं प्रवासित था। जब वह प्रवास से घर लौटा तब उसकी पत्नी ने उसे डांटते हुए कहा-'भगवान् प्रव्रजित हो गए। उन्होंने वर्षी दान दिया और तुम जंगलों में भटकते रहे। जाओ, उनसे कुछ मांगो। संभव है कि कुछ मिल जाए।' वह भगवान् के पास आकर बोला- 'स्वामिन् ! आपने मुझे कुछ भी नहीं दिया, अब तो कुछ दो।' तब भगवान् ने उस दूष्य का आधा भाग देते हुए कहा-'मेरे पास और कुछ नहीं है। सब कुछ छोड़ दिया है।' वह ब्राह्मण उस दूष्य-खंड को लेकर, उसके किनारे बंधवाने के लिए जुलाहे के पास गया। जुलाहे ने पूछा-'यह कहां से लाए हो?' वह बोला-'भगवान् ने दिया है।' जुलाहा बोला-'इसका अन्य आधा भाग भी ले आओ। ब्राह्मण बोला-'कैसे लाऊं?' जुलाहे ने कहा- 'जब भगवान् के कंधे से वह गिर पड़े तब ले आना, मैं किनारे बांध दूंगा। तब इस पूरे वस्त्र का मूल्य एक लाख हो जाएगा। आधा तेरा और आधा मेरा।' ब्राह्मण जुलाहे की बात स्वीकार कर भगवान् के साथ चलने लगा। ५५. अनुकूल उपसर्ग
भगवान् ने जब अभिनिष्क्रमण किया तब दिव्य गोशीर्ष चंदन एवं सुगंधित चूर्ण आदि से उनका शरीर वासित किया गया। इंद्रों ने विशेष रूप से चंदन आदि के लेप से शरीर को सुवासित किया। प्रव्रजित होने के बाद चार मास से अधिक समय तक उनके शरीर से सुगंध आती रही। सुरभित सुगंध से अनेक भ्रमर आदि जीव आकृष्ट होकर उनके शरीर को बींधते रहते थे। जब भगवान् के शरीर से कोई स्वाद नहीं मिलता तो आक्रुष्ट होकर वे मुख से भगवान् की त्वचा को काटते रहते। चींटियां भी उनके शरीर पर चढ़ती रहती थीं। असंयमी तरुण-तरुणियां भगवान् के शरीर से निकलने वाली गंध में मूर्च्छित होकर भगवान् से उस गंध द्रव्य की मांग करते रहते थे। भगवान् के चुप रहने पर वे प्रतिकूल उपसर्ग देते थे। प्रतिमा में स्थित भगवान् को भी वे उपसर्ग देते रहते थे। स्त्रियां भी भगवान् के स्वेद मल रहित निर्मल देह को, निःश्वास से सुगंधित मुख को तथा नीलोत्पल जैसी स्वाभाविक आंखों को देखकर अनेक प्रकार से अनुलोम उपसर्ग उपस्थित करती थीं। १. आवनि. २७५, आवचू. १ पृ. २४९-२६८, हाटी. १ पृ. १२३-१२५, मटी. प. २६०-२६६ । २. आवचू. १ पृ. २६८, हाटी. १ पृ. १२५, मटी. प. २६६ । ३. आवचू. १ पृ. २६८, २६९, मटी. प. २६७।
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