Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक निर्यु
५६. ग्वाले का उपद्रव
कुंडपुर के बाहर ज्ञातखंड नाम का उद्यान था । भगवान् वहां प्रव्रजित हुए। जो स्वजन उपस्थित थे, भगवान् उन्हें पूछकर कर्मारग्राम की ओर प्रस्थित हुए। उसके दो मार्ग थे— स्थलमार्ग और जलमार्ग। भगवान् स्थलमार्ग से चले और मुहूर्त्तमात्र शेष दिन-वेला में कर्मारग्राम गांव पहुंचकर प्रतिमा में स्थित हो गए। एक ग्वाला दिन भर खेत में बैलों से बुवाई कर सायंकाल गांव के निकट आया । उसने सोचा‘ये बैल यहां आसपास चरते रहें, तब तक मैं गायों को दुहकर आ जाऊंगा।' भगवान् अन्तःपरिकर्म में लगे हुए थे। बैल चरते-चरते अटवी में चले गए। ग्वाला घर से लौट कर आया और भगवान् से पूछा- 'मेरे बैल कहां हैं?' भगवान् मौन थे । उसने सोचा- भगवान् नहीं जानते अतः वह बैलों को खोजने चला। पूरी रात खोजता रहा पर उसे बैल नहीं मिले। वे बैल लंबे समय तक अटवी में चरते -चरते गांव के समीप आ गए और प्रतिमा में स्थित मनुष्य को देखकर वहीं उगाली करते हुए बैठ गए। इतने में ही ग्वाला वहां आया। उसने बैलों को वहीं बैठे देखा। उसने निश्चय कर लिया कि इसी बाबे ने ही मेरे बैल चुराए हैं। अत्यंत
पोकर वह रस्सी से भगवान् को मारने के लिए उद्यत हुआ। शक्र ने सोचा- 'आज दीक्षा का पहला दिन है। स्वामी इस स्थिति में क्या कर सकेंगे ?' इंद्र ने देखा, ग्वाला हाथ में रस्सी लिए दौड़ा-दौड़ा आ रहा है। शक्र ने उसे स्तम्भित कर दिया और तर्जना देते हुए कहा - 'अरे दुष्ट ! तू नहीं जानता, ये सिद्धार्थ महाराजा के पुत्र हैं और प्रव्रजित हो गए हैं । "
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५७. सिद्धार्थ देव का आगमन
इतने में ही भगवान् का मामा सिद्धार्थ, जो बालतपः कर्म के कारण व्यन्तर देव बना था, वह आया। तब भगवान् से कहा- 'भंते! आपका साधना-जीवन उपसर्ग-बहुल है। मेरी भावना है कि मैं बारह वर्षों तक आपकी सेवा में रहूं ।' भगवान् बोले – 'देवेन्द्र ! ऐसा न कभी हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि अर्हत् देवेन्द्र अथवा असुरेन्द्र की निश्रा में रहकर केवलज्ञान प्राप्त करते हों, सिद्धिगति को प्राप्त होते हों । अर्हत् स्वयं के उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से ही केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।' तब शक्र ने व्यंतर देव सिद्धार्थ से कहा- 'ये स्वामी तुम्हारे निजक - परिवार के हैं। दूसरी बात, मेरी यह आज्ञा है कि इन पर
कोई मारणांतिक उपसर्ग आए, तुम उसका निवारण करना।' सिद्धार्थ देव ने 'ऐसा ही हो' - यह कहकर शक्र के वचन को स्वीकार किया। शक्र चला गया। सिद्धार्थ देव सेवा में ही रहा।
उस दिन भगवान् के बेले की तपस्या का पारणा था। भगवान् वहां से कोल्लाग सन्निवेश में गए। वहां बहुल नामक ब्राह्मण के घर भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुए। उसने भगवान् को घृत-मधु- संयुक्त खीर की भिक्षा दी। उस समय वहां पांच दिव्य प्रादुर्भूत हुए।
५८. प्रथम वर्षावास की प्रतिज्ञाएं
भगवान् वहां से विहार करते हुए मोराक सन्निवेश में पहुंचे। वहां द्वितीयान्तक नामक पाषंडी गृहस्थों का आश्रम था। उनके कुलपति भगवान् के पिता के मित्र थे । वे स्वामी के स्वागत के लिए आए। १. आवनि. २७६, आवचू. १ पृ. २६९, २७०, हाटी. १ पृ. १२५, मटी. प. २६७ ।
२. आवचू. १ पृ. २७०, हाटी. १ पृ. १२६, मटी. प. २६७ ।
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