Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
३८१
भगवान् ऋजु मार्ग से चले। कुछ ग्वालों ने भगवान् को उस मार्ग से जाने के लिए रोका। उन्होंने कहा - 'इस मार्ग पर एक दृष्टिविष सर्प रहता है अतः इस मार्ग से न जाएं ।' भगवान् बोले- 'वह भव्य है अतः संबुद्ध हो जाएगा।' भगवान् उसी मार्ग से चले। आगे जाकर वे यक्षगृह के मंडप में प्रतिमा धारण कर स्थित हो गए। चंडकौशिक ने प्रतिमा में स्थित भगवान् को देखा और अत्यंत क्रुद्ध होकर मन ही मन बोला'क्या यह मुझे नहीं जानता?' तब उसने सूर्य की ओर दृष्टिपात कर भगवान् की ओर दृष्टि-निक्षेप किया। भगवान् अन्य प्राणियों की भांति भस्मसात् नहीं हुए। दो-तीन बार उसने वैसा ही किया। भगवान् अकंप रहे तब वह भगवान् के पास गया और भगवान् को डसकर यह सोचकर दूर खिसक गया कि कहीं भगवान् मेरे ऊपर न गिर पड़ें। भगवान् पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने तीन बार भगवान् को डसा । भगवान् को निष्कंप देखकर वह क्रोध से अभिभूत होकर भगवान् को देखने लगा । भगवान् के रूप को देखते-देखते उसकी विष से परिपूर्ण आंखें भगवान् की कान्ति और सौम्यता से बंद हो गईं। तब भगवान् बोले- 'ओ चंडकौशिक ! शान्त हो जाओ।' शब्द सुनकर चंडकौशिक के मन में ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा प्रारंभ हो गई। ऐसा करते-करते उसे पूर्वजन्म की स्मृति हुई । तब उसने मन ही मन 'आयाहिणं पयाहिणं' कहते हुए भक्तप्रत्याख्यान कर लिया।
कहीं मैं रुष्ट होकर लोगों को न मार डालूं यह सोचकर वह दृष्टिविष सर्प बिल में अपना मुंह
१. चंडकौशिक का पूर्वभव
पूर्वभव में वह दृष्टिविष सर्प एक क्षपक था। तपस्या के पारणे में वह पर्युषित भक्तपान के लिए गांव में गया। उसके पैरों तले एक मेंढकी मर गई। साथ वाले बाल मुनि ने इस बात की जानकारी दी। क्षपक बोला- 'यह मेंढकी लोगों द्वारा मारी गई है, इसे तू मेरे द्वारा मारी गई क्यों बता रहा है ?' तब क्षुल्लक मुनि ने सोचा- 'संभव है सायं प्रतिक्रमण के समय ये इसकी आलोचना करेंगे।' क्षपक ने वैसा नहीं किया तब क्षुल्लक ने सोचा- संभव है, इनको इसकी विस्मृति हो गई हो। तब वह क्षपक के पास पहुंचा और उनको मेंढकी की स्मृति कराई। क्षपक रुष्ट होकर क्षुल्लक पर प्रहार करने के लिए दौड़ा। अंधकार में वह खंभे से टकराया और वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गया । श्रामण्य की विराधना करने के कारण वह ज्योतिष्क देव बना। वहां से च्युत होकर वह कनकखल आश्रम के पांच सौ तापसों के कुलपति की पत्नी के उदर में आया। गर्भ की अवधि पूरी होने पर वह पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम कौशिक रखा गया। वहां अन्य बालकों का नाम भी कौशिक था। वह अपने स्वभाव से अत्यंत चंड था अतः वह चंडकौशिक नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुलपति के दिवंगत हो जाने पर वह कुलपति बना । वह अपने वनखंड के प्रति अत्यन्त मूर्च्छित था अतः अन्यान्य तापसों को फल नहीं देता था। वे तापस उस वनखंड को छोड़कर अन्यत्र चले गए। वहां जो भी गोपाल आदि आता, वह उसे मारकर भगा देता। वहां निकट में ही श्वेतांबिका नगरी थी।
एक बार नगरी के राजकुमार वहां आए। जब कुलपति वहां नहीं था, तब उन्होंने उस वनखंड को विनष्ट कर डाला । कुलपति उस समय कांटों की बाड़ के लिए गया हुआ था। गोपालकों ने उसको सारा वृत्तान्त बताया। वह कुठार हाथ में लेकर कुमारों को मारने दौड़ा। उसे आते देखकर कुमार वहां से पलायन कर गए। वह उनके पीछे भागा और अचानक एक गढ़े में गिर गया। उसके हाथ के कुठार से उसका सिर दो भागों में विभक्त हो गया। उससे मृत्यु प्राप्त कर वह उसी वनखंड में दृष्टिविष सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। वह अब रोष और लोभ से उस वनखंड की रक्षा करने लगा। उसके तीव्र विष से सभी तापस दग्ध हो गए। जो बचे, वे वहां से भाग गए। दृष्टिविष सर्प चंडकौशिक त्रिसन्ध्य उस वनखंड की परिक्रमा करता और यदि चिड़िया भी दृष्टिगत हो जाती तो उसे जलाकर भस्म कर डालता (आवनि. २८२, आवचू. १ पृ. २७८, हाटी. १ पृ. १३०, १३१, मटी. प. २७३ ) ।
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