Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 409
________________ ३४८ परि. ३ : कथाएं 'अच्छा, आप दोनों वस्तुएं बिना मूल्य के ले जाएं। मूल्य से मुझे क्या ? आप चिकित्सा कराएं तो मुझे भी धर्म होगा ।' उसने बिना मूल्य के दोनों वस्तुएं सौंप दीं। फिर वणिक् ने सोचा- 'इन बालकों की धर्म के ऊपर इतनी श्रद्धा है। मैं मंदपुण्य हूं, इहलोकप्रतिबद्ध हूं, मेरी इतनी श्रद्धा नहीं है।' उसे विरक्ति हुई और वह स्थविरों के पास प्रव्रजित होकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया । वे चारों मित्र वणिक् से कंबलरत्न और गोशीर्षचन्दन- दोनों वस्तुएं लेकर वैद्य के पास गए और फिर पांचों उस उद्यान में गए, जहां मुनि प्रतिमा में स्थित थे। उन्होंने मुनि को वंदना कर प्रार्थना के स्वर में कहा—‘भगवन्! आज्ञा दें। हम आपकी चर्या में विघ्न उपस्थित करने आए हैं। ' वैद्य ने तब मुनि के पूरे शरीर पर तैल का अभ्यंगन किया। वह सारा तेल रोम कूपों से शरीर के भीतर प्रविष्ट हो गया। शरीर में तेल के प्रवेश करते ही सारे कृमि संक्षुब्ध होकर हलन चलन करने लगे। उस समय मुनि के अत्यंत वेदना प्रादुर्भूत हुई । वे कृमि शरीर से बाहर निकले। यह देखकर वैद्य ने मुनि को रत्नकंबल से ढक दिया। वह रत्नकंबल शीतवीर्य वाला था । तैल उष्णवीर्य वाला था । सारे कृमि उस कंबल पर चिपक गए। तब पूर्व आनीत गाय के कलेवर में उस कंबल को झटका। वे सारे कृमि कंबल से नीचे गिर गए फिर वैद्य ने साधु शरीर पर गोशीर्षचन्दन का लेप कर दिया। मुनि समाश्वस्त हुए । एक- दो-तीन बार इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति कर उन्होंने मुनि को नीरोग कर दिया। सभी मित्र मुनि से क्षमायाचना कर चले गए। कालान्तर में वे सभी प्रव्रजित हो गए और पांचों मरकर अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर वह जंबूद्वीप के पूर्वविदेह की पुष्करावती विजय की पुंडरीकिनी नगरी में वज्रसेन राजा की रानी धारिणी के गर्भ से वज्रनाभ नाम का पुत्र हुआ। यह वैद्यपुत्र का जीव था, जो चक्रवर्ती बनने वाला था । अवशिष्ट जीव बाहु, सुबाहु, पीठ, महापीठ के रूप में उत्पन्न हुए । महाराज वज्रसेन प्रव्रजित हो गए। वे तीर्थंकर बने। शेष सभी गृहवास में महामांडलिक राजा बनकर भोग भोगने लगे। जिस दिन वज्रसेन को केवलज्ञान हुआ, उसी दिन वज्रनाभ के चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। वज्रनाभ चक्रवर्ती हो गया। उसने मुनि की वैयावृत्य की थी इसलिए उसे चक्रवर्ती की समृद्धि प्राप्त हुई। शेष चार मांडलिक राजा हुए। वज्रनाभ चक्रवर्ती का संपूर्ण आयुष्य चौरासी लाख पूर्व का था । उन्होंने कुमारावस्था में तीस लाख पूर्व, मांडलिक राजा के रूप में सोलह लाख पूर्व, महाराजा के रूप में चौबीस लाख पूर्व तथा श्रामण्य पर्याय चौदह लाख पूर्व तक पालन किया । चक्रवर्ती वज्रनाभ भोगों को भोगते हुए जीवन-यापन करने लगे । एक बार तीर्थंकर वज्रसेन नलिनीगुल्म उद्यान में समवसृत हुए। समवसरण की रचना हुई । चक्रवर्ती वज्रनाभ अपने चारों सहोदरों के साथ तीर्थंकर पिता वज्रसेन के पास प्रव्रजित हो गए। मुनि वज्रनाभ चौदह पूर्व पढ़े और शेष चारों भाइयों ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। मुनि बाहु मुनियों की वैयावृत्य १. पहले तेल चुपड़ा जाता है, पश्चात् गोशीर्षचन्दन का लेप किया जाता है, फिर तेल चुपड़ा जाता है और गोशीर्षचन्दन का लेप किया जाता है - इस परिपाटी से प्रथम अभ्यंगन से त्वक्गत कृमि बाहर आते हैं, दूसरे अभ्यंगन में मांसगत कृमि बाहर आते हैं और तीसरे अभ्यंगन में अस्थिगत कृमि बाहर आते हैं। फिर संरोहणी औषधि के प्रयोग से शरीर कनकवर्ण वाला जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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